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पुरातत्वविदोंका जैसे डॉ० ग्लासेनापको यह स्वीकार करना पड़ा है कि " संभवत. आर्यो का यही (जैनधर्म) सबसे प्राचीन तात्विक दर्शन है और अपनी जन्मभूमिमे यह आजतक बिना किसी रद्दोबदलके चला आता है ।"
इस कालमें जैनधर्मका सर्व प्रथम उपदेश भगवान् ऋषभदेवने ही एक अतीव प्राचीनकालमें पुरातत्वकी साक्षी । दिया था, यह वात पुरातन भारतीय पुरातत्व से भी सिद्ध होती है । जैनमदिरों में ऋषभदेवजीकी अनेक प्रतिमायें 'चौथेकाल' अर्थात् भगवान् महावीर या उनसे पूर्ववर्ती कालकी बतलाई जाती है । सचमुच उनमें कोई लेख न रहनेसे और उनकी बनावट अस्पष्ट और असंस्कृत होनेके कारण उन्हें उक्त प्रकार प्राचीन मानना कुछ अनुचित नहीं है । तिसपर जब हम राजा खाग्वेलके हाथी गुफा वाले लेखमें एक नन्दवशी राजा द्वारा श्री० ऋषभदेवजी की मूर्तिको कलिंगसे पाटलीपुत्र ले जानेका उल्लेख पाते है,' तो इस व्याख्याको और भी विश्वसनीय पाते है । नन्दगके पहलेसे श्री ऋषभदेवकी मूर्तिया बनने लगीं थीं, यह बात हाथीगुफाके उक्त प्राचीन गिलालेखसे प्रमाणित है । फिर खडगरिकी गुफाओं में भी श्री ऋषभदेवकी मूर्तियां उकेरी हुई है और मथुराके ककाली टीलेसे ईमासे पूर्व और बादकी प्रथम शताब्दियोंके प्रारंभिक कालकी जैन मूर्तियां निकली हैं, जिनमें कई एक श्री ऋषभदेवजी की है । इम तरह जन्मारक पृ० १३८ | २ - जेनस्तूप ० २१-३० ।
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२ - बगाल, बिहार, ओड़ी एण्ड अघर एण्टीक्वटीज आफ