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उपरोक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेवके आस्तित्वको आनसे ढाई हजार वर्ष पहलेके लोग स्वीकार करते थे और उन्हें
नयाका 'आदिपुरुष' मानते थे। हाथीगुफाके उपरोक्त शिलालेखम उनका उल्लेख 'अग्रनिन'के रूपमें हुआ है। अतएव पुरातन पुरातत्व भी श्री ऋषभदेवजीको जैनधर्मका इस युगकालीन आदि
प्रचारक सिद्ध करता है।
द्वि साहित्यसे भी यह प्रमाणित है कि जैनधर्म म० बुद्धके
जन्मकालमें एक सुसंगठित धर्म था और पाद्ध ग्रंथ भी श्रीऋषभ- वह निगन्थ धम्म'के नामसे बहुत पह- . का जनधर्मका प्रणेता लेसे चला आरहा था। हम पहले ही
लात है। कह चुके हैं कि बौद्ध ग्रन्थोमें जैनियोक
दी है और उसमें 'निगन्थों' (ज नम्बरपर गिना है। यदि जना प्रा इस तरह दूसरे नंबरपर नहीं।
___ सम्बन्धमें अनेक सारगर्भित उल्लेख मौजूद अगुत्तरनिकाय' में एक सूची म० बुद्धके समयके साधुआ
उसमें 'निगन्थों (जैनियों को आजीवकोंके बाद दूसरे "ना है। यदि जैनी प्राचीन न होते तो उनकी गणना दूसरे नंबरपर नही होसक्ती थी। इसके साथ ही हम जानते हैं कि आजीविक मतकी सृष्टि भगवान पार्श्वनाथके मक्खलिगोशाल नामक एक भ्रष्ट जैन मुनि द्वारा ही मुख्यहुई थी, जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमे यथास्थान बताया गया है। ॥ दशाम आजीविकों को पहले और उनके बाद जेनोको गिनना .-स्टडीज इन साउथ इन्ज्यिन जैनीम भाग . ८० ।। २-डायोलाग्म ऑफ दी बद (3. B B. Tol. II.) Intry to Fasseps-Silhundn-Sattr.