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[१८] असंगत है। परन्तु यह संभवतः इस कारणसे है कि नैनी उस समयके पहले 'निगन्ध' नामसे परिचित न होकर किसी अन्य नामसे विख्यात् होंगे । सचमुच श्वेतांवर शास्त्रोंमें उस कालसे पहलेके जैन मुनि
'कुमारपुत्त निगन्थ' नामसे परिचित मिलते है। 'श्रमण' रूपसे __ भी जैन मुनि पहले विख्यात थे । 'कल्पसूत्र' में जैनधर्मको 'श्रमण 'धर्म' ही लिखा है। यही बात दि. जैन ग्रन्थोसे भी प्रमाणित है। इसके साथ ही हम अगाड़ी यह भी देखेंगे कि वैदिक कालमें जैन लोग 'व्रात्य नामसे भी परिचित थे। यह बात हिन्दू विद्वान मानते हैं कि वैदिक मत अहिंसा प्रधान नहीं था-प्रारम्भसे ही उसमें हिसक विधान मौजूद थे और जैनधर्ममें अहिंसा ही मुख्य है, जिसकी छाप वैदिक धर्मपर आखिर पड़ी थी। अतएव जबतक वैदिक मतमें अहिंसादि व्रतोंको अपनाया नहीं गया था, तबतक उनका अपने प्रतिपक्षी जैनियोको उनके अहिंसा मादि पांच व्रतोंके कारण "व्रात्य" नामसे उल्लेख करना सर्वथा उचित था। सभवतः भगवान पार्श्वनाथके समय तक जैनी "वात्य" और "समण" नामसे ही परिचित रहे थे और इसके उपरांत वे मुख्यत "निगथ" नामसे विख्यात हुये । यही कारण है कि उपरोक्त बौद्ध ग्रंथमें उन्हें आजीविकों के बाद दूसरे नम्बर पर गिना गया है । जो हो, बौद्ध
१-उत्ताध्ययन व्या० २३ । २-कल्पमूत्र (Stwenson' पृ०.८३ । ३-मर्पि शिवव्रतलाल एम० ए०का "जैनधर्म और पदिक चम' बीर की ५४० २३५ और प्रिन्मिपल्स ऑफ हिन्दु इथिक्म पृ. ४८३-४८७ । ४-लाजपतराय, "भारतवर्षका इतिहास' भाग १ पृ० १२९ और भारतगौम्वन्गे तिलककाव्याख्यान-अर्जेन विद्वानोंकी मनमरिया पृ० १० ।