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[१५] तो स्वयं भगवान् महावीरका जन्म ही हुआ था । और भगवानके माता-पिता एवं अन्य परिजन पहलेसे ही जैनधर्मके हानी थे। द्राविड लोगोंमें मैनधर्मका बहु प्रचार रहा है, यह सर्व प्रकट है । लात्यायन सूत्रोंसे यह प्रकट ही है कि व्रात्योंका मुख्यस्थान बिहार था, जो जेनतीर्थंकरों के कार्यका भी लीलास्थल रहा है। अतएव इन बातोंको देखनेसे ही यह ठीक जंचता है कि व्रात्यलोग जैन थे, अथवा जैनोंका प्राचीन नाम 'व्रात्य' था। किन्तु इतने परसे ही सन्तोष कर लेना ठीक नहीं है।
मगाड़ी यह बात प्रगट है कि वेदोंसे वेदोंके अरुणमुख यति एक यज्ञ विरोधी दलका अस्तित्व सिद्ध भी जैन थे। है, जो यति कहलाते थे | वही यक्ति
'अरुणमुख' कहे गये हैं अर्थात इनके मुखमें वेदों का पाठ नहीं था । तथापि यह वेदोंके यज्ञविधानके भी विरोधी थे, क्योंकि इसी कारण इन्द्रने इन्हें सजा दी थी ३ ताण्डिय ब्राह्मणमें (१४।२।५।२८) यह यूं लिखी हैं:'इन्द्रो यतीन पालटकेभ्यः प्रयच्छत्तम् अस्तीलावग असरदासोऽशुद्धोमन्यत स एतत् शुद्धाशुद्धियं अपश्यत्तेन अवयवा'
अर्थात -“इन्द्रने यतियों को गीदड़ों के सम्मुख डाल दिया। एक दुर्वाणाने उससे कहा-( टीकाकारके अनुसार उने चाह्मण हत्याका पातकी बताते हुये) “ उसने अपने आपको अशुद्ध
१-अत्रिय क्लैन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० ८२ । २-जना राफर, ऐशियाटिक सोसाइटी, बबई, No. LIII, भाग १९.