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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। उपनिषद ११६ ) और ब्राह्मण इनके निकट 'सत् था।' इनके उपरान्त प्रतरदनकी गणना की गई है। यह कागीके राजा दिवोदासके पुत्र थे । इन्होंने संयमी जीवन वितानेके लिए आंतरिक अग्निहोत्र (आन्तरम् अग्निहोत्रम् ) का विधान किया था । यह वैदिक यज्ञवादा एक तरहसे सुधार ही था । प्रज्ञात्मा (Poy nitive Soul) के मूल प्राणको इन्होने ससारका पोपक, सबोका स्वामी. शरीर रहित
और अमर बतलाया था: इसलिए वह सांसारिक पुण्य-पापसे रहित था । (कोपीतकि उप० ३१९)। किसी भी व्यक्तिके किसी कार्यसे 'उसके जीवनको हानि नहीं पहुंचती है, माता, पिताके मार डालनेसे भी कुछ नहीं बिगड़ता है; न कुछ हानि चोरीसे या एक ब्राह्मणके मारनेसे होती है। यदि वह कोई पप करता है तौभी चेहरेसे प्रकाश नहीं जाता है । (को० ३०३।९) इस तरह उनकी शिक्षामें जाहिरा पुण्य - पापका लोप ही था। इनके इस सिद्धांतका विशेष आन्दोलन नचिकेत, पूरणकस्सप, पकुढकच्चायन और भगवदगीताके रचयिता द्वारा हुआ था ।'
प्रतरदनके पश्चात् उद्दालक आरुणीके हाथोसे ब्राह्मण मतमें एक उलटफेर ला उपस्थित की गई थी। उहालक अरुण ब्राह्मणका पुत्र और वेतकेतुका पिता था। इनका मत 'मन्थ' नामसे ज्ञात था, जिसमें विवाहका करना मुख्य था। जैन राजवानिकमे मान्थनिकोंकी गणना क्रियावादियोंमें की गई है । श्वेतांवरियो के सूत्रकृताइमें भी (१।१।११७-९) इनके मतका उल्लेख है। इनको ज्ञानकी पिपासा उत्कट थी। इनका सैद्धान्तिक विवेचन प्राय महीदास जैमा ही था। इन्होंने
१- पूर्व पृष्ठ १११-१२ ।