________________
तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [६९ कहा कि न जो इसतरह कह रहा है सो तुझे क्या मालम नहीं है कि इममें गंगाका जल मिला हुमा है। यदि यह गगाजल इस भोजनके उच्छिष्ट दोषको भी दूर नहीं कर सक्ता तो फिर इन तीर्थोके जलसे पापरूपी मल किसतरह दूर होसक्ता है । इसलिये तु अपने मृद चित्तसे इन निर्मल विचारोको निकाल दे। यदि जलसे ही बुरी वासनाओके पाप दूर होजाय तो फिर तप दान आदि अनुष्ठानोंका करना व्यर्थ ही होजायगा | सबलोग जलसे ही पाप दूर कर लिया करें क्योकि जल सब जगह सुलभ रीतिसे मिलता है । मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कपाय इससे पापकर्मोका बंध होता है और सम्यक्त्व ज्ञान. चारित्र तपसे पुण्य कर्मोका वध होता है । तथा अंतमे इन्हीं चागेसे मोक्ष होती है । इसलिये अब तृ श्री जिनेन्द्रदेवका मत स्वीकार कर," इसप्रकार श्रावकने कहा।
उस श्रावकका यह उपदेश सुनकर उस ब्राह्मणने तीर्थमूढ़ता भी छोड़ दी। इसके बाद वहीपर एक, तपस्वी पांच अग्नियोके मध्यमें बैठकर दुःस्सह तप कर रहा था। जलती हुई अग्निमे छहों प्रकारके जीवोंका निरंतर घात होरहा था और वह प्रत्यक्ष जान पड़ता था । उस श्रावकने उस तपस्वीको माननेकी पाखडि मूढता भी बड़ी युक्तियोसे दूर की। इसके बाद वह श्रावक फिर कहने लगा 'कि इस वटवृक्षपर कुवेर रहता है, ऐसी बातोंपर श्रद्धान रखकर राजालोग भी उसके योग्य आचरण करने लग जाते हैं अर्थात् पूजने लग जाते हैं। क्या वे जानते नही कि लोकका यह बड़ा भारी प्रसिद्ध हुआ मार्ग छोड़ा नहीं जा सकता' इत्यादि ऐसे लोकप्रसिद्ध बचनोको कभी ग्रहण नही करना चाहिए क्योंकि ऐसे