SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवानका धर्मोपदेश! [२४१ उसी प्रकारकी पौगलिक शक्तिया, जिनको कर्मवर्गणायें कहते हैं, अपनेमें खींच लेता है। जब यह सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणायें संसारी जीवसे सम्बद्ध होजाती हैं, तब वहां अपनी प्रबलताके अनुसार नियत स्थितिके लिये ठहर जाती हैं । अस्तु; पहले दो तत्त्व तो जीवअनीव हुये और उपरांत कर्मोका आगमन रूप आश्रव और उनका जीवमें स्थिर होने रूप बन्ध यह क्रमसे तीसरे और चौथे तत्त्व प्रमाणित होते हैं। यहांतक तो प्राणीके सुख दुख भुगतने का संबंध स्पष्ट किया गया है, अब अगाड़ी इम उपायका बतलाना ही शेष है कि इस सुख दुखसे कैसे छूटा जाता है ? इसके लिये आवश्यक है कि सुख दुख देनेवाली कर्म वर्गणाओं को आने देनेका मार्ग रोक दिया जाय । यही क्रिया पांचवा सवर तत्व है। अब जब कि कर्मोका आना तो रुक गया तब यही कार्य शेष रह जाता है कि सिलकमेंके कर्मोको नष्ट कर दिया जाय । यह छठा निर्जरा तत्त्व है। बस जब सब कर्म ही नष्ट होगये तब जीव स्वाधीन और सुखी होजाता है । यह सातवां मोक्ष तत्व है। इन सात तत्वोकी यह वैज्ञानिक लडी है और इसमेका एक भी दाना इधरसे उधर सारी लड़ीको तोड़े विना नहीं किया जासक्ता है । इस कारण यह कभी भी सम्भव नहीं है कि भगवान महावीरसे पहलेके श्री पार्श्वनाथ अथवा किसी अन्य तीर्थकरने इनसे किप्ती अन्य प्रकार और ढगके तत्वों का निरूपण किया हो ! इस अवस्थामें यहांपर एक गोरखधंधासा नेत्रोंके अगाडी आ उपस्थित होता है । समय प्रवाहके अनुसार तीर्थंकरोंके धर्मोपदेशमें किंचित् अन्तर पड़ना आवश्यक ठहरता है और वस्तुस्थिति अथवा वैज्ञानिक रूपमें उसका सदा
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy