________________
सागरदत्त और वन्धुदत्त श्रेष्टि। [३३५ दुःखदायी व्यवहार उसके हृदयसे इस भवमें भी नहीं उतरा था। , इसीलिए वह स्त्री मात्रसे द्वेष करता था। किन्तु शायद पाठक यहां
पर वणिक कन्याका उसके साथ इसतरह पत्रव्यवहार करना अनु'चित समझें ! आजकल जरूर नन्ही उमरमें वणिकोंकी कन्याओं के वाग्दान सस्कार और विवाह लग्न हो जाते है और वर-वधूको एक दूसरेके स्वभावका भी परिचय नहीं हो पाता है । इसी कारण आज दाम्पत्यसुखका प्रायः हर घरमें अभाव है और आदर्श दम्पति मिलना मुश्किल होरहा है । किन्तु उस जमाने में यह बात नहीं थी। तब पूर्ण युवा और युवत्तियोके विवाह होते थे और परदा उनके परस्पर परिचय पानेमें बाधक नहीं था। इसी कारण उक्त वणिक सुताने विना किसी सकोचके सागरदत्तको प्रेमपत्र लिखा था। जब उसका वह पत्र भी इच्छित फलको न दे सका, तो उसने एक और पत्र लिखा, इसमें उसने कहा कि 'सचमुच यह तो बड़ा ही अन्याय है कि केवल एक स्त्रीके दोषको लेकर सारी ही स्त्री जातिको दोषी ठहरा दिया जाय । क्या शुक्लपक्षके पूर्णमाकी रात्रिसे इसीलिए घृणा करना ठीक है कि उसके पहले कृष्ण पक्षमें उसकी बहिन बिल्कुल अंधेरी होती है ?
सागरदत्त इस सारगर्मित उत्तरको पाकर अवाक रह गया ! रूप-सौन्दर्य अवश्य ही उसके मनको पलटने में असफल रहा था, परन्तु ज्ञानमई विवेक-वचन अपना कार्य कर गये। सागरदत्त उस वणिक-कन्याकी बुद्धिमत्ताके कायल होगये । उनको अपनी गलती नजर पड गई। उन्होंने जान लिया कि सचमुच सारी स्त्रीजातिको दूषित ठहराना अन्याय है। इस जातिको ही यह सौभाग्य प्राप्त