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उस समय की सुदशा ।
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(२) दूसरा मार्ग उत्तर से दक्षिण पूर्व की ओरको था । यह श्रावस्ती से राजगृहको गया था । श्रावस्ती से चलकर इसपर मुख्य नगर सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हत्थिगाम, भन्डगाम, वैशाली, पाटलीपुत्र और नालन्दा पड़ते थे । यह मार्ग शायद गया तक चला गया था और वहां पर यह एक अन्य मार्ग जो समुद्रतटसे आया था, उससे मिलगया था । यह मार्ग संभवत: ताम्रलिप्तिसे बनारस के लिये था ।
(३) तीसरा मार्ग पूर्व से पश्चिमको था । यह मुख्य मार्ग था और प्रायः बड़ी नदियोके किनारे २ गया था । इन नदियोंमें नावें किराये पर चलती थी । सेहजति, कौशाम्बी, चम्पा आदि सर्व ही मुख्य नगर इस मार्गमें आते थे ।
इस तरह ये व्यापारके विशेष प्रख्यात् मार्ग उस समय के थे । इनमे महाराष्ट्र तक ही सम्बन्ध बतलाया गया है । दक्षिण भारत के विषय में कुछ नही कहा गया है । पुरातत्वविदोका मत है कि उस जमाने में उत्तरभारतवालोको दक्षिणभारत के विषय में बहुत कम ज्ञान था - वे उसको 'दक्षिणपथ' कहकर छुट्टी पा लेने थे परन्तु जैनशास्त्र में हमे इस व्याख्याके विपरीत दर्शन होते है । वहा प्राचीनकालसे दक्षिण भारतका सम्बन्ध जैनधर्मसे बतलाया गया है । भगवान ऋषभदेवके पुत्र बाहुबलि दक्षिण भारत के ही राजा थे इस अपेक्षा जैनधर्मका अस्तित्व वहां वेदोके रचे नानेके पहले प्रतिभाषित होता है, क्योकि हिन्दुओके भागवनमें (अ० ५, ४-५-६ ) ऋषभदेवको आठवा और वामनको चारहवा अवतार पो १ - आदिपुराण पर्व ३४-३७ और धीर प
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