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बनारस और राजा विश्वसेन [९९ इसी अपेक्षा ब्राह्मण कथाकार उपरोक्त उल्लेख करता है तथा कहता है कि अर्हन ने भी वैसा ही उपदेश दिया था। भगवान महावीरका शासन उनके समयसे चला आरहा है और इनके अनुयायियोको ब्राह्मणोंने 'आर्हत्' नामसे निर्दिष्ट किया है, यह भी स्पष्ट है, इस अपेक्षा महतसे अभिप्राय उक्त कथामे भगवान महावीरसे ही है । बुद्ध शब्दका व्यवहार वह म० बुद्धको लक्ष्य करके करता प्रतीत होता है, यही कारण है कि वह उनको भी जिन और अर्हन्के साथ २ संसारभरमें भ्रमण करता और उपदेश देता नहीं बतलाता है। यहां वह बिल्कुल ही ऐतिहासिक वार्ता कह रहा है, क्योंकि हमे मालूम है कि बौद्धधर्मका विकाश भारतके बाहिर सम्राट अशोकके पहले नहीं हुआ था । ' अईत् ' को ब्राह्मण कथाकार ‘महिमन' या 'महामान्य' नामसे उल्लिखित करता है । 'जिनसहस्रनाम' में हमें 'एक ऐसा ही नाम तीर्थंकर भगवानका मिल जाता है । इसकारण हम इस शब्दको भी जैन तीर्थकरके लिये व्यवहृत हुआ पाते हैं। सहगामिनी जो उक्त कथामें बतलाई गई है वह तीर्थंकरोंकी शासन देवता है; क्योकि नागोद राज्यके पटैनीदेवीके जैनमदिरमे जो नैन देवियोकी मूर्तियां और उनके नाम लिखे हैं उनमें जया और महामनुसी नामक देवियां भी हैं। (देखो मध्यभारत प्राचीन जैनस्मारक ट० १२३)। ब्राह्मण कथाकार भी जया और महामान्यको
जैन तीर्थंकरोंकी सहगामिनी बतलाता है। अस्तु; उपरान्त जो है जैनधर्मका विशेष प्रकाश होनेपर उसका नाश शङ्कराचार्य द्वारा
१-ए० हिस्ट्री ऑफ प्री० इन्डि. फिला० पृट ३७७ । २-'महामुनिमहामौनी' इत्यादि छटा अधाय देखिये ।