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________________ ४४ ] भगवान पार्श्वनाथ | 2 भी पाया है । उसमे भी लिखा है कि विशाखमुनि (ईसा पूर्व तीसरी शताव्डि) ने चोल पाण्ड्य आदि देशोंमें विहार करके वहापर स्थित जैन चेत्योंकी वढना की थी और उपदेश दिया था । इसपर उक्त प्रोफेसर लिखते है कि इससे यह प्रकट है कि भद्रबाहु अर्थात् ईसा से पूर्व २९७ के बहुत पहले से ही जनलोग गहन दक्षिणमें आन बसे थे ।' और अगाडी चलकर आप बौद्धों के महावश नामक ग्रंथके आधार से कहते है कि लंका के राजा पान्डुगाभयने जब अपनी राजधानी ईसा से पूर्व करीव ४३७में अनुरद्धपुर बनाई थी तो वहां एक निगन्ध (जैन) उपासक 'गिरि' का भी गृह था और राजाने निगन्ध कुम्बन्धके लिए भी एक मंदिर बनवाना था। इससे लकामें जैन धर्मका अस्तित्व ईसा पूर्व पाचवी शताब्दिमें प्रो० साहब बतलाते है और इसके साथ ही दक्षिण भारत में भी, परन्तु यह समय इससे भी कुछ अधिक होना चाहिए क्योंकि इससमय ही यदि जैन लोग इन देशो में आए होते तो एक विदेशी राजा उनके प्रति इतना ध्यान नहीं देता । वह वहापर उसके बहुत पहले पहुचे होगे तत्र ही उनका प्रभाव वहा पर इतना जमा होगा कि वहाके राजाका भी ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ था । तिप्तपर इतना तो म्पष्ट ही है कि इन देशोंमें बसने के बहुत पहलेसे जनोका आना जाना यहा अवश्य होता रहा होगा, जैसे कि उपरोक्त जैन कथाओ से प्रकट है । चौद्धोंकि 'महावंश' से भी प्राचीन ग्रन्थ 'दीपवंग' में भी यह और १- स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग १ पृ० ३२ | २-मद्दात्रश पृ० ४९ । ३-स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनीज्म भाग १ पृ० ३३ !
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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