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कुमारजीवन और तापस समागम। [११९
(१०) कुमारजीवन और तापस समागम ! _ 'हिमकरमुखमंबुजोपमाक्ष पुरपरि धायतबाहु तुच्छमध्यम् ।
पृथुतर विलसद्विशाल वक्षस्तरलतमाल रुचिप्रकाश रुच्यम् ॥६१ ; अतिसित रुधिर सरोजगंधि व्यपसृत धर्मजलं मलादपोढम् ।
प्रसकल शुभलक्षणोपपन्नं प्रथमक संहननं मनोज्ञ कांतिम् ॥दर कुलगिरितल भूमि संधिवन्धं श्लथपरिहास विधिक्षम जवेन । वपुरथ परमेश्वरेण बभ्रे शतमख हस्तसरोजराजबिंबम् ॥६३॥'
-पार्श्वनाथचरित्र । तीनो लोकोंको सुख दाता जिनेन्द्र पार्श्वनाथका जन्म हो गया । वे बालक भगवान शुक्ल पक्षके चन्द्रमाकी तरह धीरे२ बढ़ने लगे, शिशु अवस्थाकी कोमल मुस्कान और सरल अठखिलियोंसे माता-पिता और बंधुजनोंका मन हरने लगे, देखते २ वे अटपटे पैरोंसे चलने भी लगे। अपने प्रफुल्लित मुख और बाल्यकालीन चंचल क्रीड़ाओंसे सबको बडे ही प्रिय लगने लगे। कभी आप उझककर धायसे दूर भाग जाते, तो कभी रत्नजड़ित दीवालोंमें अपनी परछाई देखकर उसको पकड़नेको कोशिष करते । इस तरह बाललीला करते वह आठ वर्षके होगये । इस नन्हीसी उमरमें ही उनकी बुद्धि बडी कुशाग्र थी और वे नैतिक आचारकी मर्यादाका पालना करने लगे थे। जैन शास्त्र कहते है कि इसी समय आपने श्रावकोके अणुव्रतोको धारण किया था। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील १-वर्णाष्टमे स्वय देवत्रिज्ञानज्ञ सपचधा।
आददेणुनतान्येव गुणशिक्षात्रतानि च ॥ १७ ॥