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भगवान पार्श्वनाथ |
प्रकट करते हुए अपने पूर्व वेरको दर्शा रहा था ! चह तडप कर -चोला, "चल रहने दे | तू इस समय निरंतर होनेवाली सम्पत्ति से उन्मत्त है, अन्यथा और कोई मनुष्य मुनियोंसे ऐसे अनुचित शब्द "कैसे कह सक्ता है ?" यह कहकर वह राजकुमारसे विमुख होकर शांति होती हुई अग्निको सुलगाने के लिए एक लक्कड़ फाड़ने लगा । भगवानने उसे बीचमें ही रोक दिया और कहा 'यह अनर्थ मत करो । इस लक्कडकी खुखालमे अन्दर सर्पयुगल हैं । वह तुम्हारी कुल्हाडीके आघातसे मरणासन्न होरहे है । तुम व्यर्थमें ही उनकी हत्या किये डाल रहे हो । उन्हें आगमे मत रक्खो ।'
किन्तु भगवानके इन हितमई वाक्योंके सुनते ही वह तापस ताड़ित हाथीकी भांति गर्जने लगा । वह बोला, "हा, ससारमें तूही ब्रह्मा है, तूही विष्णु है, तूही महेश है, मानो तेरे चलाये ही दुनिया चल रही है । तुही बड़ा ज्ञानी है, जो यहां ऐसा उपदेश छाट रहा है | यहां मेरे लक्कड़ में नाग-नागिनी कहासे आये ? मैं तेरा नाना और फिर तापस-तब भी तू मेरी अवज्ञा करते नहीं
डरता है । "
आचार्य कहते हैं कि ' तपस्वीके कठोर वचन सुनकर भी त्रिलोकीनाथ भगवानको कुछ भी क्रोध न आया। वे हंसने लगे और हाथमें कुल्हाड़ी ले अधजलती लकड़ीको उनने फाड़ डाला | जलती हुई अग्निकी उप्णतासे छटपटाते हुए नाग और नागिनीको जिनेन्द्र भगवान ने बाहर निकाला और अपने अलौकिक तेजसे तपस्वीके रूपको खंडवडकर उसे क्रुद्ध कर दिया ।' (पार्श्वचरित ८० ३७१) उन नाग-नागिनीके दुखसे भगवानका कोमल हृदय बड़ा ही