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हमें वृषभदेव के दर्शन होजाते हैं, जो व्रतोंको सर्व प्रथम प्रगट करनेवाले थे, सर्व प्रथम तपश्चरणका अभ्यास और सत्यका उपदेश देनेवाले थे और जिन्होंकी वंदना देवदेवेन्द्रोंने की थी। जैन दृष्टिसे " तपश्चरणकी मुख्यता कायोत्सर्ग आसन द्वारा सर्दी गर्मी एवं अन्य कठिनाइयोंको सहते हुये ध्यानमग्न स्थित रहने में स्वीकृत है । वृषभदेव इसी आसन में तपस्यालीन रहे थे । अनेक जैन मंदिरोंमें I आज भी उनकी मूर्ति कायोत्सर्ग रूपमें मिलती है । तीर्थंकर भगवानके लिए देव निर्मित समवशरणका जिक्र भी पहले हो चुका है। अथर्ववेद में अगाड़ी तीसरे प्रपतक में वृषभदेवकी इस जीवन घटना अर्थात कायोत्सर्गे तपस्या करने और फिर केवली हो देवों द्वारा रचे गये समोशरण में बैठने का भी उल्लेख है । उसमें लिखा है कि "वह एक वर्ष तक सीधे खडे रहे, देवोंने उनसे कहा, " व्रात्य, अब आप क्यों खडे है ?" .. उनने उत्तर में कहा, "उनको मेरे लिये एक आसन लाने दो।" उस व्रात्यके लिये वे आसन लाये; उप्प आसनपर व्रात्य आरूढ होगए | उनके देवगण सेवक थे 1 इत्यादि इस व्रात्यके सम्बंध में भी पगड़ी, धनुष और रथका उल्लेख है । इससे केवल महाव्रात्य प्रभुको एक क्षत्रियव्रात्य प्रगट करनेका ही भाव है । इसीलिए क्षत्री व्रात्योंके साधारण जीवन क्रियाओंपगड़ी आदिका उल्लेख चिन्ह रूपमें कर दिया है । इन महाव्रात्यके सम् अलौकिक बातोंका भी उल्लेख है। साराशतः इन महापुरुपको गौरवविशिष्ट और वैदिक देवताओंसे भी उच्चतम प्रगट किया गया है । कितने ही वैदिक देवता इनके सेवक बताये गये हैं । यह महाव्रात्य सर्व दिशाओं में विचरने और उनके पीछे देवोंको जाते