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कमठ और मरुभूति । ( २ )
कमठ और मरुभूति !
" जैसी करनी आचरे, तैसो ही फल होय ।
लागै कोय ॥ "
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इन्द्रायनकी वेलिकै, आंव न कमट - हाय ! मै कहा जाऊं, कैसे इस जलते हुए दिलको शाति दिलाउं ? विसुन्दरीकी वांकी चितवनने गजब ढा दिया है । एक ही निगाहमे मृगनयनी मेरे हृदय के ह्क २ कर गई है । न उठते चैन है और न बैठते आराम है, खाना पीना सब हराम है ! अबतो उसी सुन्दरीकी याद रह २ कर मारे डाल रही है | क्या करू मै उस मनमोहिनी मूरतको कैसे पाऊ ? मेरे कहने मे वह आती नही । जब देखो तब धर्मकी बातें बघारती है । लेकिन कुछ भी हो, मेरा जीवन तो उसके बिना नहीं सक्ता | मित्र कलहंस ही शायद इस जलते जीको सान्त्वना दिलानेका कुछ उपाय बतलाये । पर हाय । उसे मै कहां द्वंद्व । प्यारी विसुन्दरीकी याद तो मुझे कुछ भी नहीं करने देती । उसकी भोली भाली सुडौल सुदर सूरत मेरे नेत्रो के अगाड़ी हर समय नाचती रहती है । हाय ! विसुन्दरी !
किसी तरह भी टिक
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कलहंस - मित्र कमठ ! आज उदास कैसे पड़े हुए हो? तुम्हें अपने तनमनकी कुछ भी सुध-बुध नही है । कहो, क्या भांग पी ली है ? .
कमठ - अहा कलहस, खूब आये ! भाई, भांग क्या पीलीऐसी भांग पी है जैसी शायद ही कोई पीताहो पर क्या बताऊँ ? बताये बिना काम भी तो नही चलेगा !