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२१४] भगवान् पार्श्वनाथ । -सिद्धिमें तन्मय थे। उन्हें सिवाय निजपद प्राप्त करनेके और कुछ भी ध्यान नहीं था-एकचित्त हो मौन धारण किये हुये वह
उसीको प्राप्त करनेकी चेष्टामें प्रयत्नशील थे। कोई भी बाधा__ कैसा भी प्रलोभन उन्हें उनके इष्टमार्गसे विचलित नहीं कर सका
था। वे एक व्यवस्थित और नियमित ढंगसे आत्मोन्नतिके मार्गमें पग बढ़ा रहे थे। वस्तु-स्वभावरूप तत्त्वोंका चिन्तवन करके और इन्द्रियनिग्रह एव विविध प्रकारको तप-क्रियायो द्वारा संयमका पालन करते हुये वेह अपनी आत्माको निर्मल और शुद्धरूप परमशक्तिवान बना रहे थे। वेह उस समय ऐसे प्रतिभाषित होने थे जैसे कल्लोलोसे रहित निस्तव्य नील समुद्र ही हो अथवा अडोल सुमेरुगिरिकी शिखिर पर नीलमणिकी सुंदर प्रतिमा ही विराजमान हों। उनके चहुओर शांतिका साम्राज्य फैल रहा था। सचमुच'वरभाव छोड्यौ वन जीव, प्रीत परस्पर करें अतीव । केहरि आदि सतावै नाहिं, निर्विष भये भुजग वनमांहि ।। सील सनाह सजौ सुचिरूप, उत्तरगुन आभरन अनूप । तपमय धनुष धरयौ निजपान, तीन रतन ये तीखतवान ।। समताभाव चढ़े जगशीस, ध्यान कृपान लियो कर ईस । चारितरंगमहीमें धीर, कर्मशत्रु विजयी वरवीर ।'
इसी अवस्थामें भगवान चार मास तक रहे थे और उपरान्त वे काग के निकट अवस्थित दीक्षावनमें पहुंच गये थे। किन्तु खेताम्बर सप्रदायके श्री भावदेवसूरि विरचित 'पार्श्वचरितमें' भगवानका अन्य स्थानोंमें पहुंचनेका भी उल्लेख है। वहां भगवानका पारणा स्थान कोपकटक स्थान बताया गया है और धन्यको