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[३९] प्रोषधोपवासादिके अनुसार उपरोक्त शेष भेद निर्दिष्ट हैं । अंतिमा ग्यारहवीं प्रतिमावाले चेल खण्डधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। इनके बाद यति हैं जो बिलकुल नग्न रहते और निर्जन स्थानोंमें ज्ञान ध्यानमई जीवन व्यतीत करते हैं; जैसे कि प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान बता दिया गया है । यूनानी लोगोने जिन साधुओंका उल्लेख 'जैम्नोसोफिस्ट्स' (Gymnosophists ) नामस किया है, वह यही है । श्रावक इन यतियोंको उनकी आहारकी वेलापर आहारदान देकर बड़ा पुण्य संचय करते हैं। अथर्ववेदमें जो गृहस्थके एक व्रात्यको पड़गाहने और उसके फल स्वरूप विविध लाभ पानेका वर्णन है वह बिलकुल जैन यतिको आहारदान देनेकी विधि और फलके विवरणके समान है । जैन तीर्थकर ही सर्वोच्च यति हैं, जो मार्ग प्रभावना (धर्मोद्योत) करनेके लिये अद्वितीय हैं। इन तीर्थंकरोंकी भक्ति देव देवेन्द्र करते हैं। उनके पंचकल्याणक करने, समवशरण रचने आदिका वर्णन पाठक प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान पढ़ेंगे। इन सब बातोंको ध्यानमें रखनेसे ही हम 'व्रात्यों का यथार्थ भाव समझ सकें और उन्हें जैन ही पायेंगे; जैसे कि पहले ही हम प्रगट कर चुके हैं । 'व्रात्य' शब्द व्रतोको पालन करनेके कारण निर्दिष्ट हुआ है, यह पहले ही कहा जाचुका है । कोषकारोंका अभिमत भी यही है और 'प्रश्नोपनिषद' (२-११)के अग्निके प्रति 'व्रत्यस्त्वम्' उल्लेखसे भी यही प्रगट है। शंकर इसकी टीकामें कहते हैं कि 'वह स्वभावसे शुद्ध है।' ( स्वभावतः एव शुद्ध इति भभिप्रायः) इससे केवल विनयभावको लेना ठीक नहीं, बल्कि इससे यह भी प्रगट है कि व्रात्य लोगोंमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य