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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ।
[ ६५ अवज्ञा करने के लिए उस वृक्षके कुछ पत्ते तोड़कर मींडकर अपने परकी धूलसे लगा लिये और उस ब्राह्मणसे कहा कि देख, तेरा देव जैनियोका अनिष्ट करने में बिल्कुल समर्थ नही है । इसके उत्तर में उस ब्राह्मणने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही, इसमें हानि ही क्या है ? मैं भी तेरे देवका तिरस्कार कर सकता हू | इस विषय में तु मेरा गुरु ही सही ! इसतरह कहकर वे दोनो एक देशमे जा पहुंचे। वहां पर कपिरोमा नामकी वेलके बहुतसे वृक्ष थे । उन्हें देखकर वह श्रावक कहने लगा कि देखो यह हमारा देव है और यह कहकर उसने वडी भक्ति से प्रदक्षिणा दी और नमस्कार कर अलग खड़ा होगया । वह ब्राह्मण पहले से क्रोध करही रहा था, इसलिए उसने भी हाथ से उसके पत्ते तोड़े और मसलकर सब जगह, लगा दिये, परन्तु वे खुजली करनेवाले पत्ते थे इसलिये लगाते ही उसे असह्य खुजलीकी बाधा होने लगी तथा वह डर गया और श्रावकसे कहने लगा कि इसमें अवश्य ही तेरा देव है । तब हंसता हुआ श्रावक कहने लगा कि इस ससारमे जीवोको सुखदुखका देनेवाला पहिले किये हुये कर्मोंके सिवाय और कुछ नहीं है - कर्म ही इसके मूलकारण है । इसलिये तप, दान, आदि सत्कार्यों द्वारा तू अपना कल्याण करनेके लिए प्रयत्न कर और इस प्रकार की देवमृदताको कि देवता ही सब करते है निकाल फेंक । वादको वह फिर कहने लगा कि जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनके देवलोग स्वयं आकर सहायक होजाते है । पुण्यरूपी कणके रहते हुये देव कुछ हानि नही कर सक्ते । इस प्रकार समझाकर अनुक्रम से उसकी देवमूढता दूर की । "
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१ - श्री गुणाभद्राचार्य प्रणीत ' उत्तरपुराण" का प० लालाराम कृन हिन्दी