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कृतझता-शान ।
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पहले ही उन अनुपम पुण्य अवसर और अलौकिक करण - भावके "निकट मैं कृतज्ञता पाशमें वेष्टित हू; जिनके वलपर प्रस्तुत ग्रन्थ रचनेका साहस मुझे हुआ । मनुष्य अनन्त संसारमें हीन - शक्ति होरहा है, वह परिस्थितिका गुलाम वन रहा है। जिसको वह पकड़े हुये है, उसीपर मर मिटने के लिये तैयार है । रुढि और धर्ममें सूक्ष्म और बादर भन्तर जो भी है, उसे समझनेवाले विरले ही परीक्षा - प्रधानी हैं। फिर भला गुरुतर महत्वगाली और अपूर्व ग्रन्थ - रत्नोंके होते हुये भी कैसे कोई इस रचना के लिये अवसर और भावकी सराहना करके उन्हें धन्यवादकी सुमनाजलि समर्पित करेगा ! पर प्रभृ पार्श्वके पादपद्मोंमें नतमस्तक होकर वर्तमान लेखक उनका आभार स्वीकार करनेको वाघ है, क्योंकि उन्होंकी कृपासे मनुष्यों में शक्तिका सञ्चार होता है और वे सत्यके दर्शन कर पातेहैं । प्रस्तुत रचना सत्यकी ओर हमें कितनी टे जायगी ? इसका उत्तर पाठकगण स्वय ही ढूँढ लें । इस विपयमें मेरा कुछ लिखना व्यर्थ है । हा, उन महानुभावोंका आमार स्वीकार कर लेना में अपना कर्तव्य समझता हू, जिनमे मुझे इस ग्रन्थ सकलनमें सहायता प्राप्त हुई है । श्री जैनसिद्रात भवन, आरा, ऐलक पन्नालाल सरस्वती भण्डार, बम्बई और श्री इम्पीरियल लायब्रेरी, क्लकत्ताने आवश्यक साहित्य प्रदान करके मेरा पूरा हाथ बढाया है, मैं इस कृपाके लिये उनका आभारी हूँ | साथ ही मैं अपने मित्र श्रीयुत मूचन्द्र किसनदासजी कापडियाके अनुप्रहको नहीं भुला सक्ता है । यह ही नहीं कि उनके सदुत्साहसे यह रचना - प्रकाशमें आरही है, प्रत्युत इसके निर्माणमें भी उन्होंने आवश्यकीय ग्रन्थों और साहित्य पत्रोंको जुटाकर इसकी रचना सुगम - साध्य बना दी । अतएव उन्हें में विशेष रूपमें धन्यवाद समर्पित करता हू । विश्वास हैं, उनके उत्साहका आदर करके विद्वान् पाठक इम रचनाको अपनायेंगे और आशा है कि इसके द्वारा वे जैनधर्मका मस्तक ऊँचा होता पायेंगे | इत्यलम् !
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अलीगंज (एटा)
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विनीत - कामताप्रसाद जैन |
ता० ११-१०-१९२८
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