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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २०३
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भगवानूका दीक्षाग्रहण और
तपश्चरण ।
साकेत नगरे सोऽथ जयसेनाख्य भूपतिः । धर्मप्रीत्यान्यदासौ प्राहिणोछी पार्श्व सन्निधं ॥ निःसृष्टार्थं महादूत कृत्स्न कार्यकरं हितं । भगलादेशसंजातहयादिप्राभृतः समं ।।
- श्री सकलकीर्निः ।
राजकुमार पार्श्वनाथ आनन्दसे कालयापन कर रहे थे । पिता के राजकार्यमें वे उनका हाथ बटाये हुये थे । युवावस्थाको प्राप्त हो चुके थे । युवक वयस के ओज पूर्ण रसने उनके शरीरको ' ऐसा खिला दिया था कि मानों कामदेव भी वहां आते खिज रहा है। भगवान तो जन्मसे ही अतीव सुन्दर और सुदृढ़ शरीर के धारी थे, पर इस समय उनकी शोभा देखे नहीं बनती थी। नीलाकाशमें जैसे शरद - पूनों का चन्द्रमा अपनी सानी नही रखता, वैसे ही भगवानके नीलवर्णके सुन्दर शरीर में यौवन अन्यत्र उस उपमाको नहीं पाता था । भगवान् जिस ओरसे होकर निकल जाते थे उस ओरके लोग उनके रूप सौन्दर्यपर बावले होजाते थे । स्त्रियोको यह भी पता नहीं रहता था कि हमारा अंचल वक्षःस्थल से कच स्खलित