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भगवान पार्श्वनाथ । सलाहसे यह विषय विचारकोटि में पड़ गया। उस रोज़ कुछ निश्चय न हुआ। कोतवाल उसे अपने घर ले आया और उसकी खूब अच्छी तरह मरम्मत की । परन्तु उसने तब भी चोरी करना न कबूला । दृमरे रोज रानसभामें उसी कोढीको कोतवाल फिर लेगये
और राजासे बोले-" महाराज, यही पक्का चोर है । " किन्तु कोढ़ोने फिर भी इन्कार किया !
आखिर राजाने उसको अभयदान देकर पूंछा कि तू सचा हाल बतादे-हम तेरा अपराध क्षमा कर देगें । इसतरह राजासे जीवदान पाकर उस कोढ़ीने चोरी करना कबूल करली । वह बोला-'रानाधिराज' अपराध क्षमा हो । मै ही वास्तवमें चोर हूं।' राजा यह सुनकर चकित होगया । उनने पूछा कि 'इतनी विकट मार सहते रहने पर भी तूने यह बात नहीं कबूली । तू बड़ा साहसी है, तूने कैसे यह वेदना सहली ?' उसने कहा कि-'महाराज, मैंने एक मुनिरानके मुखसे नर्कोके दुखोका वर्णन सुना था । सो मुझे निश्चय था कि इम वेदनासे कहीं अधिक वेदना तों मैं पहले अनेक वार नकोंमें भुगत चुका हूं। वहीं भयभीत न हुआ तो इस वेदनासे विचलित होना फिजूल है ।' राना यह उत्तर सुनकर बडे हर्षित हुए । उनने उसे वर दान दिया; पर उस चोरने आप कुछ भी न मांगकर यमदण्ड कोतवालको ही सब कुछ देनेकी प्रार्थना की! यह देखकर राजा और भी अचंभेमें पड़ गया ! उनने उससे पूछा कि यमदण्ड तो तेरा बैरी है-तु उसे मित्र मानकर प्रेमका व्यवहार कैसे कर रहा हैं ? वह चोर बोला-'महाराज, यह मेरे मित्र ही हैं। इसका खुलासा यूं है सो सुनिये-दक्षिणके आभीर प्रान्तमें