SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ ] भगवान् पार्श्वनाथ | मान्यता स्वीकार की जा सक्ती है । .. जैनधर्म का स्वरूप ही इस बात की पुष्टि करता है; क्योंकि पुद्गल के अणु आत्मामें कर्म की उत्पत्ति करते हैं, यह इसका मुख्य सिद्धांत है और इस सिद्धातकी प्राचीन विशेषताके कारण ऐमा अनुमान किया जासक्ता है कि इसका मूल ई० सन्के पहले वीं शताव्दिमें हैं ।' १ प्रो० डॉ० जार्ल चार पेन्टियर भी स्पष्ट लिखते है कि 'पार्श्वकी शिक्षा सम्बन्ध में हमें विशेष अच्छा परिचय मिलता है । यह प्रायः खासकर वैसी थी जैसी कि महावीर और उनके शिष्यों की थी ?' (देखो केविन हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ ० १५४) भारतीय अणुवाद (Atomic Theory ) का इतिहास भी जैनदर्शनकी प्राचीनताको प्रगट करता है; जैसे कि ऊपर डॉ० ग्लेसेनप्पने व्यक्त किया है । सचमुच भारतीय दर्शनोंमें जैनदर्शनमें ही इस सिद्धान्तका निरूपण सर्व प्राचीन मान्यताओके आधारपर किया गया है। हिन्दुओं में केवल वैशेषिक और न्यायदर्शने इसको स्वीकार किया [; परन्तु वहां वह प्राचीनरूप इसका नहीं मिलता है जो जैन धर्म प्राप्त है । (देखो इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड ईथिवस भाग १ ० १९९ - २०० ) इसलिये यह सिद्धान्त भगवान् महावीर के पहले से जैनदर्शन में स्वीकृत था, यह स्पष्ट है | साथ ही बौद्धोंके मज्झिमनिकाय (भाग १४० २२५ - २२६) में निर्ग्रन्थ पुत्र सञ्चकका कथानक दिया है, जिसमें उसके बुद्ध से सैद्धांतिक विवाद करने का उल्लेख है । यह निर्ग्रन्थपुत्र बुद्धका समसामयिक था । इस कारण इसका पिता म० बुद्ध से पहले ही मौजूद होता 1-Glassenapp Ephemerides Onen t 25 P 13
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy