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आनन्दकुमार । [३१ लीक पद पर राजा आनन्दकुमार आसीन थे।
इसतरह महामंडलीक राजा आनन्दकुमार आनंदसे कालयापन कर रहे थे कि बसतोत्सवका समागम हुआ । राजमंत्री स्वामिहितने अपने विवेकभरे वचनोसे राजाका मन वनक्रीडा करनेके स्थानपर जिनभवनमें नन्दीश्वर विधानका परम उत्सव करनेकी
ओर फेर दिया ! बड़े उत्साहसे पूजन होने लगा । राजा भी बड़े हर्षसे जिनेन्द्रभगवानकी पूजा करनेके लिये वहा पहुंचा और बड़े भक्तिभाव और शात चित्तसे उसने भगवानकी पूजा की । आकुलताका नाम नही-धीरजसे विधिपूर्वक पूना हुई। राजाका मनरूपी भ्रमर जिनराजके पादकमलोमें मुग्ध होगया । भक्तवत्सल जीव जिनेन्द्रप्रभुके समक्ष अपने द्वैतभावको भूलकर एकमेक होनाते हैं। जिनेन्द्रपूनामे स्वामी और चाकरका सम्बंध नहीं है । वहां जो पूजक है सो पुज्य है, यही भाव प्रधान रहता है। न याचना हैन प्रार्थना है- निराक हृदयसे प्रभुके आत्मीक गुणोमें "अरे; जो वे हैं सो मै हूं" की ध्वनिमे लीन होजाना है-यही जैनपूजा है। . राजा भी ऐसी पूजा करनेको उद्यमशील हुआ था, परन्तु उसके हृदयमे सशय उठ खडा हुआ । सौभाग्यसे विपुलमती नामक मुनिराज भी वहां वदनार्थ आए थे, उनके निकट जाकर राजाने अपने सशयका समाधान करना चाहा । काकी निवृति करना ही उत्तम है-उसको दवाना सम्यक्त्वमें बट्टा लगाना है-सच्चे श्रद्धानको मलिन करना है । स्वतंत्र विचारो द्वारा प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण करना श्रद्धानको निर्मल और गाढ़ बनाना है। स्वतंत्र विचारोंसे डरनेकी कोई बात नहीं-स्वाधीन रीतिसे तात्विक चर्चा करना परम