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________________ १७०] भगवान पार्श्वनाथ । किया है, क्योंकि हम जानते है कि यह विद्याधर जैन धर्मानुयायी थे। रामायणमें स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि राक्षस-दैत्य आदि यज्ञमे मानकर विघ्न उपस्थित करने लगे थे और ऊपर जैन पद्मपुराणके वर्णनमें हम देख आये हैं कि राक्षसवशी रावणने यज्ञकार्य बंद कराया ही था । इस अपेक्षा यह स्पष्ट है कि विद्याधर मनुप्योको राक्षस आदि देवयोनिके बतलाना केवल पारस्परिक स्पोके ही कारण था । याज्ञवल्क्यने, इसी स्पीके कारण गंगाकी तराईमें रहनेवाले मनुष्यों अथवा पूर्वीय आर्योको जो बहुतायतसे काशी, कौशल, विदेह और मगधमें वेद विरोधी बने रहते थे और जो बहुत करके जैन ही थे 'भृष्ट' सज्ञासे विभूषित किया था। सारांशत. यह स्वीकार किया जासक्ता है कि शङ्खद्वीपमें रहनेवाले राक्षस और म्लेच्छ वास्तवमे आर्य मनुष्य ही थे और प्रायः जैन थे। __ अब देखना यह है कि शङ्गद्वीपमेंका यह राक्षसस्थान कहां पर है ? एक यूरोपीय प्राच्य विद्याविशारद शहीपको आजकलका मिश्र (Egypt) सिद्ध करते हैं और उसीमें राक्षसस्थान प्रमाणित करते हैं। वह राक्षसस्थान वही प्रदेश बतलाते हैं जिसको यूनानवासियोंने रॉकोटिस (Rhacotis) संज्ञा दी थी अथवा जिसको उन्हींका भूगोलवेत्ता केडरेनस (Cedrenus ) 'रॉखास्तेन' (Rhakhasten) नामसे उल्लेखित करता है। यह स्थान मौजूदा अलेक्झांडियाके ही स्थलकी ओर था और प्राचीनकालमें अवश्य ही विशेष महत्वका स्थान रहा होगा, क्योंकि भूगोलवेत्ता लिनी १-पक्षिप्त जैन इतिहास पृ० ११-१२ । २-ऐशियाटिक रिसचेंज भाग ३ पृ. १०. । ३-पूर्व० पृ० १८९ ।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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