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________________ भगवानका धर्मोपदेश ! [ २५१ भगवान पार्श्वनाथी सम्बन्धमें भी इस शब्दका भाव इस रूपमें ही व्यक्त करना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथजी के समय में भी ब्रह्मचर्य धर्मकी आवश्यक्ता बेढब थी, यह हम पहले देख चुके है । जिस प्रकार कहा जाता है कि भगवान् महावीरजी के समय में साधुओंमें ब्रह्मचर्यकी शिथिलता देखकर उसका अलग निरूपण करना आवश्यक होगया था उसी तरह वह आवश्यक्ता भगवान् पार्श्वनायजीके समय में भी कुछ कम नहीं थी । इस दशा में श्वे ० सूत्रकी इस घटनाकथाका परिचय ठीक नहीं बैठता है | श्री समतभद्राचार्य के बताये हुये विशेषणरूप चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथजी और महावीरजी दोनों ही तीर्थंकरोंके शासन में मिलता प्रगट होता है । फिर यहां अंतर कुछ भी नहीं रहता है और इस हालत में उक्त खे कथनका कुछ भी महत्व शेष नहीं रहता ! यह सामान्य रीति से कुछ अटपटाता मालूम होता है; परन्तु श्वे० आगमग्रन्थोके संकलन - क्रमको ध्यान में रखने से इसमें संशय अथवा विस्मय करनेको कोई स्थान शेष नहीं रहता ! उन्होंने अपने सैद्धांतिक भेदको स्पष्ट करनेके लिये अनेक पूर्वापर विरोधित उल्लेख किये हैं। खासकर उन्होंने बौद्धों के साहित्यको अपना आदर्शसा माना है । यही कारण है कि श्वे ० सूत्रग्रन्थों में बहुत कुछ बौद्ध ग्रन्थोसे लिया हुआ आज मिल जाता है । और इस ० १ दिगम्बर जैन ' वर्ष १९ अक ९ से प्रकट हमारी 'श्वेतावर 'जैनोंके आगमग्रन्थ ' शीर्षक लेखमाला तथा दी हिस्ट्री ऑफ प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७५-३७७ २ जाले चारपेन्टियर. उत्तराध्ययनसूत्रकी भूमिका और नोट । ४ <
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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