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उस समयकी सुदशा ।
[ ५१ समान अन्य साधर्मी और सजातीय अर्थात् वैश्यसे विवाह सम्बंध कर लेता है तो उसके इस कृत्यको कोई २ लोग बुरी निगाह से देखते हैं; परन्तु उस समय यह बात नही थी । विवाह क्षेत्र अपनी ही जाति या अपने ही साधर्मी भाइयोंमें ही नियमित नही था बल्कि शूदों और म्लेच्छों की कन्याओंसे भी विवाह किये जाते थे । तथापि ऐसे Į विवाहोंको करनेवाले लोग कभी भी नीची निगाहसे नही देखे जाते थे । सचमुच वे इतने पूज्य माने गए हैं कि आज भी हम उनके गुणगान शास्त्रोंमें सुनते हैं । इसलिए उस समय जातिका अभिमान विवाह करने में बाधक नहीं था । इसका यही कारण था कि उस समयके प्रधान मतावलम्बी विप्रोंने ब्रह्मचर्यपर विशेष जोर नहीं दिया था; जैसे कि हम अगाड़ी देखेंगे । हिन्दू और जैन ग्रन्थोके निम्न उदाहरण भी हमारी उक्त व्याख्या और विवाह क्षेत्रकी विशालताको प्रगट कर देते हैं ।
"मनुस्मृतिके ९ वें अध्यायमें दो श्लोक निम्नप्रकार पाये जाते हैं--- — अक्षमाला वसिष्ठेन सयुक्ताऽधमयोनिजा ।
शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ॥ एताश्चन्याश्च लोकेऽस्मिन्न पकृष्टप्रसूतय. । उत्कर्ष योषित प्राप्ता स्वेर्भट गुणै शुभे ॥ २४ ॥
" इन श्लोकोमे यह बतलाया गया है कि अधम योनिसे उत्पन्न हुई - निःकृष्ट (अछूत) जातिकी अक्षमाला नामकी स्त्री वशिष्ठ ऋषिसे और शारगी नामकी स्त्री मन्दपाल ऋषिके साथ विवाहित होनेपर पूज्यताको प्राप्त हुई । इनके सिवाय और भी दूसरी कितनी ही हीन जातियोंकी स्त्रियां उच्च जातियो के पुरुषो के साथ विवाहित होनेपर अपने २ भर्तारके शुभ गुणोके द्वारा इस लोकमे उत्कर्षको