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४] भगवान पार्श्वनाथ । देहके खूनसे सुखी होना मानता है और फिर अपनी भ्रम बुद्धिपर पछताता है । इसलिये प्रिये, विवेकी पुरुषोका यही कर्तव्य है कि इस अमूल्य जीवनको सार्थक बनानेके लिये धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थीका समुचित सेवन कर चुकनेपर-बुढापेका इन्तजार न करके-जब ही सभव हो तब ही निवृत्ति मार्गकी शरणमें आकर शाश्वत सुख पानेका उद्यम करें। फिर देखो, मेरे लिये तो यमका दूत आ ही पहुचा है । अब भी मैं अगर इस नर देहका उचित उपयोग न करूं, तो मुझसा मूर्ख कौन होगा। अगाध सागरमे रत्न गुमाकर फिर उसे पानेकी मैं कैसे आशा करूं ?
अनु०-हां, साहव, न कीजिये । लेकिन यह तो बताइये, मेरा क्या कीनियेगा ?
विश्व०-मोहका पर्दा अभीतक तुम्हारी बुद्धिपरसे हटा नहीं है। पर प्यारी, जरा विवेकसे काम लो ! देखो पति-पत्नी एक गृहस्थी रूपी रथके दो पहिये हैं जो रथको बराबर चलने देते है !
इन दोनो पहियोका एकसा और मजबूत होना ठीक है । पुरुषकी __ तरह स्त्रीको भी ज्ञानवान और आदर्श चरित्र होना दाम्पत्य सुखको
सफल वनाना है । सौभाग्यसे हम-तुम दोनों ही इतने सुयोग्य निकले कि गृहस्थीरूपी रथको प्राय मजिलपर पहुंचा ही चुके है। गृहस्थीकी सबसे बडी अभिलाषा यही होती है-न्याय अन्यायः मनुष्य सब इसीके लिये करता है कि औलाद हो और मै उसका
बढ़चढ़के विवाह कर दू, जिससे वशका नाम चलता रहे । हमारी __ तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण हो चुकी है। इसलिये अपने परभवको
सुधारना अब हम दोनोंको इष्ट होना चाहिये । मैं तुम्हें इस अव