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३२२] भगवान् पार्श्वनाथ । सच्चे सुखका राजमार्ग निस्टह भावसे जतला रहे थे, रंकसे लेकर राव तकका कल्याण कर रहे थे । भेद और पक्षसे विलग रहते वे सबके ही आदर पात्र बन रहे थे। वे अपना और परका उपकार करनेमें सदा बद्धपरिकर थे । लोभ और ममत्व तो उनको अपने शरीर तकसे नहीं था । वे वीर थे, पूर्ण निस्ष्टही थे, अपने जैसे आप थे ! परम त्यानके साक्षात् आदर्श थे । परमपूज्य श्रमण थे। उनके चरणों में सब ही नतमस्तक होते थे ! कविकी तानमें तान मिलाकर सब यही कहते थे:-- "जस गावत शारद शेप खरो, अघवन्त उधारनको तुमरो। तिहित शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो॥ दुख वारिधत प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु मरो। सब क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर करो।"
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(१८) মৃন্তু , ক্লোস্মৃন্তু ভুলুনি
शेषः शिष्या । "मसयरि-पूरण रिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्भि। सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ १७६ ।। चहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स । णिग्गइ झुणीण, अरुहो णिग्गयविस्सास सीसस्स ॥१७७॥ 'ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पोवेयभासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ॥ १७८॥
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