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महाराजा करकण्डु |
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दंतिवाहनकी आज्ञा स्वीकार करें, वरन रणक्षेत्र में आजावें । करकंडु क्षत्रियपुत्र थे | उनने रणक्षेत्रमें आना ही स्वीकार किया, दूत लौट गया। चंपानरेश उसके मुखसे करकंडुका उत्तर सुनकर आगबबूला होगए । उन्होने रणभेरी बजवा दी और कूचका बिगुल फूक दिया गया । नियत समय में चंपानरेश दलबल सहित दंतिपुरके निकट आपहुचे । करकंडु भी सेना सहित मुकाविला करने को तैयार थे । दोनों दलोंकी मुठभेड़ होनेवाली थी । रणक्षेत्रमें योद्धा हूंकारने ही लगे थे कि इतने में रानी पद्मावती वहां आपहुंची । उन्होने पितापुत्रका आपस में परिचय करा दिया और इसतरह खूनकी नदियां बहते बहते बच गई, रणचंडिकाका खप्पर न भरने पाया, किन्तु आनन्ददेवीकी बहुभाति अर्चना होने लगी ।
राजा दन्तिवाहन अपनी प्रिया और पुत्रको पाकर बडे प्रसन्न हुये और बड़े आदर से उनको चंपानगर लिवाले गये। वहां पहुंचकर फालान्तर में राजा दन्तिवाहनने राजपाटका मार कर कंडुके हाथ में छोड़ दिया और आप दिगबर मुनि होगये, दुद्धर तपश्चरण तपकर अन्तमें शिवरमणीके गलहार बनगये । इधर करकंडु नीतिपूर्वक राज्य करने लेंगे।
१- " इयेखिवि णिउ करकडु णामु । गजजणण णयरु गुणगणिय धातु ॥ घत्ता - जे सगरि सुडवर खेयरह, भउजणियउ घणुहरम असरहिं, ते वेडि पट्टण चउदिसहि, गय तुरयण गरिंदहि दुद्धरहिं ॥१२॥" पुण्याश्रवमें करर्कडुका चपाकी ओर वढना लिखा है । २ - ' ता दुद्धररायह जो धरदु, करकंडहो वउ राय पट्टू । पुणु अप्पणु राय तरकणेण, तणुमडिउ तवसिरिभूसणेण । कम्म गढि णिउवण सारु, तउचरि विसुदुद्धरु काममारु । तणु छडेविखडिविहिमयगड, सो लग्गउ सिववहुतणए कठु । घत्ता - गउ धाड़ीवाहण, सियणिलउ, कणयामर वण्णउ गुणह वरु । करकडु करतउ रज्जु पुरि, सो अच्छइ मणिणिहिययहरु || २२ || "