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भगवान पार्श्वनाथ |
( २६ ) उपसंहार ।
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जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भर्तुः पदद्वयम् ।
क्षयं दुस्तरपापस्य क्षयं कर्तुं ददुज्जयम || ' - श्री समन्तभद्राचार्य. ।
हे प्रभो पार्श्वनाथ ! 'आप मोहादिक सम्पूर्ण अंतरंग शत्रुओं को जीतनेवाले हो, सबके स्वामी हो । हे देव ! आपके चरणकमल अतिशय शोभायमान हैं । सर्वत्र विजय देनेवाले है | अतिशय गहन प पोंको भी नाश करने के लिये समर्थ है । हे भगवन् ! आपके ऐसे चरणकमल मेरा अंधकार दूर करो।' अवश्य ही त्रिभुवनवन्दनीय भगवान्की पवित्र संस्तुति भक्तजनके अज्ञानतमको नाश करनेमें मूल कारण है । पतितपावन प्रभूके पाद- पद्मोंका भ्रमर बन जानेसे पाप-पङ्कमें फंसा रहना बिल्कुल असंभव है । प्रभुकी भक्ति प्रभुकी विनय परिणामों में वह विशुद्धता लाती है कि स्वयमेव ही सब संकट नष्ट होजाते हैं और भक्तवत्सल प्राणी आनन्दसर में गोते लगाता है । भगवान् पार्श्वनाथ एक ऐसे ही पतितपावन उपामनीय परमात्मा थे । उन्होंने मोहमायाको अपनेसे दूर भगा दिया था । क्रोध, मान, माया लोभ आदि मानवी कमजोरियोको उनने पास फटकने नहीं दिया था ! बाहिरी शान- गुमानके कारणोंको तो वह प्रभू पहले ही नष्ट कर चुके थे । प्राकृतरूपमें वे विवसन होकर निर्भीक विचरण करते थे । जैसे बाहिर थे, वैसे भीतर थे । न जाहिरा देखने में कोई शारीरिक दोष था और वैसे ही न मनमें कोई मॅल था, वे खुबसूरत अनूठे थे । प्रकृतिके अञ्चलमें ज्यों