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भगवान पार्श्वनाथ |
वैसे जन्म मेरा ऐसे स्थान में हुआ जहां जैनमतका नाम सुननेको नहीं था और बचपन भी जिनेन्द्र भगवान की शरणसे दूर२ वीता ! पर इसका अर्थ यह नहीं है कि पुण्योदयसे मेरा जन्म एक जैन कुलमें नहीं हुआ है ? मैं जन्मसे जैनी अवश्य हूं । परन्तु जैन कुलमें जन्म लेनेसे ही कोई जैनी नहीं होजाता ! इसीलिये मैं कहता हूं कि मैं जैनी बनने की कोशिषमें हूं । जैनधर्म है विजयमार्ग ! विजयी - वीर ही इसको अपनानेके अधिकारी हैं ! मनुष्य में जितनी -नीचता है, संसारका जितना अहंकार है, उस सबपर विजय पानेके लिये जब कहीं तैयारी की जाय तब कोई जैनी हो ! अथवा कवि भाषके शब्दोंमें 'सकलजनोपकार सज्जा सज्जनता जैनी' जैनी है । मनुष्य मात्र के उपकार करनेका सज्जनोत्तम भाव हृदयमें जागृत होना कठिन है ! फिर भला कोई जैनी कैसे होवे ? अपनेमें इसी भावको जागृत करनेकी उत्कट अभिलाषासे विजयी वीरों - महावीरोंके चरित्रमें मन पग रहा है । शायद मैं कभी सचमुच जैनी हो जाऊँ ? फिर भला कहिये कि इस अवस्थामें मेरा परिचय लिखने से किसीको क्या फायदा होगा ? यह भी तो एक अहंकार है । पर संसारकी ममता और लोगोंका कौतूहल जो कराले सो थोड़ा है ! वैसे उनमें और मुझमें अथवा अन्य किसीमें अन्तर ही किस बातका हैं। अंतर के कपाट खुलें तो सच्चा दर्शन ठीक परिचय मिल जावे !
मेरे इस वर्तमान रूपका अवतरण भारतवर्ष में संयुक्त प्रांतके एक जैन कुटुम्बमें हुआ है । उस समयकी बात है कि जब मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न होगया था, तब विविध प्रांतोंके शासक स्वाचीन राजा और नवाव बन बैठे थे । फर्रुखाबादमें भी एक ऐसी
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