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भगवान् पार्श्वनाथ |
बडे आदर से अपने यहां लिवाले गया था और शुभलग्न में अपनी पुत्रीका विवाह उनसे कर दिया था । (वेवाहु कियउलहुताहूकेवि ) करकंडु यहां नववधू के साथ कुछ दिन रहकर अन्यत्र चले गये थे । और विद्याधर कन्या आदिके साथ विवाह करके घूमते फिरते द्राविड़देशमें चोल, चेरम, पाण्ड्य आदिके राजाओंके सन्मुख जा डटे थे ।' यहां घोर युद्ध हुआ था और आखिर इन राजाओको करकंडुसे परास्त होना पड़ा था । जिस समय करकंडु इनके मुकुटोंको पैरोंसे कुचलता अगाड़ी बढ़ रहा था, तो उसने उनमें जिनप्रतिमाओंको बना देखा । उनको देखते ही वही स्थंभित हो गया । उसने समझा यह बड़ा अनर्थ हो गया ! अपने साघर्मी भाइयोको मैंने वृथा ही कष्ट दिया । वह बहुत ही दुःख करने लगा और उसने उनसे क्षमायाचना करके मैत्री करली । वात्सल्यप्रेमका यह अनूठा चित्र है ! श्रावकोंमें गऊवत्सवत् प्रेम होना चाहिये, इसका यह एक नमूना है ! आजके श्रावकोंको मानों वात्सल्यभाव धारण करनेका प्रगट उपदेश देरहा है - कह रहा है कि जैनी जैनी में परस्पर भेद नहीं होना चाहिये । उनको परस्पर मिलकर रहना चाहिये ! करकंडु महाराजका यह आदर्श कार्य सर्वथा अनुकरणीय है ।
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करकंडु महाराजने उन राजाओंसे विदा होकर तेरापट्टनको प्रयाण किया । वहां पर उनकी मदनावली रानी उनसे आकर मिल
१ - तर्हि अत्थि विकितिय दिग्णसराउ - सबहिउ ता करकडु राउ । ता दिविड़देसमहि अलु भमतु - सपत्तउ तहिं मछरुव तु । तहिं चौड़े चोर पंडिय णिवाह, केणाविखणद्वे ते मिलीयाहि । २ - करकड धरियाते विरणे, सिरमज्द मल्वि चरणेहिं तहो मउड़ महिं देखिवि जिणपढ़िम, करकडवोजायर वहुलु दुहु ॥ १८ ॥