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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
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ठीक न होगा । वस्तुतः इनके अतिरिक्त उनके चारित्र विधान में अनेक नियम साधु और उपासकोंके लिए और थे। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं रक्खेगा कि निगन्यसमाज के समग्र चारित्रनियम पाई और उनके शिष्यो के अनुसार थे । किन्तु इस चारित्र नियमके साथ एक और कठिन नैनिक नियमावली विनयवाद या शीलव्रत थी, जिसको महावीर और बुद्धने एक स्वरसे उचित ठराया था। दूसरे शब्दों में पार्श्वके चारित्र नियम यद्यपि अच्छे थे, परन्तु उनके निर्माणक्रम और औचित्य दर्शाने के लिये सैद्धांतिक व्यवस्था की आवश्यक्ता श्री; जिससे वे उछृंखल न जंचे और समाजकी सुविधा में भुला न दिये जांय । (उत्तराध्ययनके संवादसे स्पष्ट है कि, पार्श्वका केवल एक धार्मिक स था जबकि महावीरका केवल एक धार्मिक संघ ही नहीं afer एक सैद्धातिक मतका पृथक् दर्शन थी ) ।”
इसके अगाडी डॉ० बारुआ महावीरस्वामीका सैद्धांतिक गुरु गोशालको अनुमान करते हुए कहते है कि - " जब कालान्तर में महावीर अपना नया संघ स्थापित करने में सफल हुए और उसे कुछ अंशमें आजीवकों के समान और शेषमें पार्श्वके शिष्यों के अनुसार रक्खा तो दोनों (निर्ग्रन्थ) सघोंमें प्रगट भेद नजर पड़ने लगा । जब कि नवीन संघकी सैद्धांतिक उत्कृष्टता पुराने संघको अन्धकार में डाल रही थी, तब उसके अनुयायियोंने किसी तरह अपने अस्तित्वको बनाये रखना नावश्यक समझा था | जाहिरा प्रतिरोध अथवा प्रति स्पर्धा इसका उपाय न था । उपाय केवल समझौते में था ! उत्तराव्ययन सम्बादसे प्रगट है कि एक समय सवस्य ही पुराने संके
1- हिस्ट्री ऑफ प्री टिनिनकी ५० ३७७-३८२ ॥