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भगवान पार्श्व व महावीरजी। [३९९ व्रतोंसे था और भगवान महावीरजीने उन्हींमें अंतिम व्रत और बढ़ा दिया था। बौद्धोंके मज्झिम निकायमे भगवान महावीरजीके पांच वन ठीक ही बताये हैं; पर उनके किसी ग्रंथमें भी भगवाना पार्श्वनाथनीके उन चार व्रतोंका उल्लेख नहीं है, जिनको श्वेताम्बर अन्य प्रगट करते हैं। फिर भगवान महावीर द्वारा यदि उन व्रतोंमें ही एक और बढ़ाया गया था, तो वह अतिम 'तपोगुण' अथवा अपरिग्रह व्रत न होकर ब्रह्मचर्यव्रत था । इस अवस्थामें डॉक बारुआका यह कथन भी उचित प्रतीत नहीं होता । तथापि डा० जैकोबीने यद्यपि पालीके 'चातुर्याम' और प्रारुतके 'चातुज्जाम' शब्दोंको समान बतलाया है; परन्तु यह भी उनने स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'चातुजाम' से भगवान पार्श्वनाथजीके चार व्रत प्रगट होते हैं। इसलिये स्व० डॉ० ह्रीस डेविड्सका प्रॉ० जैकोबीको 'चातुर्याम' से श्री पार्श्वनाथजीके चार व्रत ग्रहण करते बतलाना ठीक है और वह जो इससे चार व्रतोंका भाव निकलना गलत बतलाते है, वह भी ठीक है । इस तरह दि० जैन ग्रन्थों एवं चौद्धोंके शास्त्रोंसे यह प्रगट नहीं होता है कि भगवान पार्श्वनाथजीके चार व्रत थे। साथ ही ऊपर जब हम यह देख चुके हैं कि पार्श्वनाथनीके निकट भी सैद्धांतिक क्रम मौजूद था, तो यह नहीं कहा जासक्ता कि व्रतोंको उनने नियमित रीतिमें न रक्खा हो! तथापि शीलवतोंका प्रार्दुभाव अंतिम तीर्थंकर द्वारा हुआ ख्याल करना भी कोरा ख्याल है। क्योंकि शीलव्रतोंमें पंच महाव्रत भी हैं और इनका अस्तित्व भगवान पार्श्वनाथ नोके संघमें मिलता है। 1-जनमत्र (S B.E) भाग : मिका पृ० २० ।