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भगवान पार्श्वनाथ |
धिंगणि क्षमाश्रमणके कुछ पहले अवश्य हो चुका था और प्राचीन एवं नवीन निग्रंथसघर्षे किंचित नाममात्रका भेद था । अस्तु, जो हो उसको छोड़कर थोड़ी देरको यह मान लिया जाय कि प्राचीन अर्थात् पार्श्वसंघमे वस्त्र धारण करना जायज था- दूपरे शब्दों में तपश्री कठिनाई कम थी- तो फिर वुद्धको अपना एक नूतन सघ स्थापित करनेकी आवश्यक्ता शेष नहीं रहती, क्योंकि बुद्धने तपश्ररणकी कठिनाई और ब्राह्मणोंके क्रियाकाण्डके खिलाफ अपना मत स्थापित किया था, सो यह दोनो बातें प्राय. उपरोक्त मानतासे उनको प्राचीन निर्यथसंघ में मिल्ती ही थीं। इससे भी यही प्रकट होता है कि प्राचीन जैन संघ में भी नग्नवेष ही मोक्ष-लिङ्ग माना गया था । म० बुद्धके पहलेसे ही नग्नवेष आदरकी दृष्टिसे देखा जाता था, यह बात पूर्णकाश्यप के नग्नसाधु होनेके कथानकसे स्पष्ट है । वह नग्न इसीलिये हुआ था कि उसका आदर जनसाधारणमें अधिक होगा । अत्र यदि भगवान् पार्श्वनाथके द्वारा नग्नवेषका प्रचार नहीं होचुका था, तो फिर नग्नवेषका इतना आदर उस समय कैसे बढ़ गया था ? यह प्रश्न अगाड़ी आता है । हिन्दुओंके उपनिषद कालीन वानप्रस्थऋषि इस वेषके कायल नहीं थे और यह भी प्रगट नहीं है कि मक्खलिगोशालके आजीविक पूर्वागामी नग्न रहते थे, प्रत्युत उनको तो 'वानप्रस्थ ढंग' का साधु लिखा है । नग्नवेष, पूर्वोके आठ निमित आदि सिद्धान्त आजीविक संप्रदाय में जैन धर्मसे लिये हुये प्रमाणित होते हैं । इस कारण अन्य कोई
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८२-८३ । २ - इन्डियन
१ - भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ० १६२ । ३- आजीविक्स भाग १ पृ० ३ ।