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३७० ] भगवान पार्श्वनाथ । अहिच्छत्रको जाते हैं-वहांसे पुण्यकी पोट बांधलाते हैं। अस्तु;
इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथनीके तीर्थमें हुये एवं उनसे सम्बन्धित पुरुषोंके दिव्य जीवनाख्यानोंका परिचय हम पालेते हैं । सचमुच उनके निर्वाणलाभ कर चुकनेके उपरान्त तक हुये प्रधान पुरुषोंके दर्शन हम करलेते हैं। अब अगाडी केवल इन प्रमूका निर्वाण कल्याणक और उनका भगवान महावीरजीसे सम्बंध देखना ही शेष है।
(२४) भृगवतनुकता निर्माणलाभ ! "कुर्वाणः पंचभिमासैविरहीकृतसप्ततिं । संवत्सराणां मासं स संहृत्य विहतिक्रियां ।। १५५ ॥
त्रिशन्मुनिभिः सार्द्ध प्रतिमायोगभास्थितः । श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादि मे ।। १५६ ॥ भागे विशाख नक्षत्रे ध्यानद्वयसमाश्रयात् । गुणस्थानद्वये स्थित्वा सम्मेदाचल मस्तके ।। १५७ ॥ तत्कालोचितकार्याणि वतयित्वायथाक्रमं । निःशेषकाने शानिर्वाणं निश्चलं स्थितः ॥ १५८ ॥
मन्द मन्द पवन चल रही थी, नीलाकाश सुहावने वादलोस मण्डित होरहा था। अमण सूर्योदय अपनी मन्दमुस्कान छोडते हुये एक झाकी भर लगा रहे थे, मानो भगवान पार्श्वनाथजीके अतुल विभवकों देखकर वह अपना मुंह ही छिपा रहे हों! पावस ऋतु था। श्रावणका महीना था। वृक्ष-लता, पशु-पक्षी और नर-नारी सबक
श्री गुणभद्राचार्य।