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राजा वमुपाल और चित्रकार ! [३६९ श्री अहिच्छत्रपुरके राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान् थे । जैन धर्ममें उनको गाढ़ श्रद्धा थी। उनकी रानी वसुमती भी बडी बुद्धिमती और धर्मपर प्रेम करनेवाली थी। राजा वसुपालने अहिच्छत्रपुरमें 'सहस्रकूट' नामका भव्य जिनमंदिर बनवाया था और उसमें श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मनोहर प्रतिमा विराजमान् की थी। इसी प्रतिमापर लेप चढानेको राजाने चित्रकार बुलाया था। यह चित्रकार मांसभक्षी था । इसकी अपवित्रताके कारण उसके द्वारा चढ़ाया हुआ लेप प्रतिमाजीपर नहीं ठहरता था। और राजा एवं सब अन्य लोग इस घटनासे दुःखी थे। उनकी समझमें इसका कारण नहीं आता था। ___आखिर वह चित्रकार किसी मुनिमहारानकी शरणमें पहुंचा'
और उनसे इस घटनाका कारण पूंछा। मुनिराजने बतला दिया कि'प्रतिमा अतिशयवाली है। कोई शासनदेवी या देव उसकी रक्षामें नियुक्त रहते है । इसलिए जबतक यह कार्य पूरा हो तबतक उसे मांसके न खानेका व्रत लेना चाहिए।' लेपकारने वैसा ही किया। मुनिराजके समीप उसने मांस न खानेकी प्रतिज्ञा ग्रहण करली। इसके बाद जब उसने दूसरे दिन लेप किया तो वह प्रतिमापरसे नहीं छूटा-वह उसपर ठहर गया । व्रतका माहात्म्य ही ऐसा है। व्रती पुरुषको हर कार्यमें सिद्धि होती है। इस हर्ष समाचारको सुनकर राजा वसुपाल भी बड़े प्रसन्न हुये और उनने चित्रकारको वस्त्राभूषण देकर उसका सत्कार किया। वे राजा रानी उस भव्य मूर्तिकी पूजा वंदना दीर्घकाल तक करते रहे और उन्हीके पुण्यकार्यसे आज भी अनेकों श्रावक उन प्रमूकी पूजा अर्चना करने