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३६०] भगवान पार्श्वनाथ । उपरान्त चौथी वार वह वनोमें अटल होगई ! निदान जैनधर्मको पालते हुये उसकी मृत्यु हुई और वह कौशाम्बीके राजा वसुपाल
और रानी वसुमतीके बुरे मुहूर्तमें पुत्री हुई: जिमसे इसको मंजूषामें रखकर गगामें बहा दिया गया था। फिर कुसुमदत्तमालीके यहां लालनपालन पाकर यह राना दंतिवाहनकी प्रिया हुई थी।
श्री मुनिराजके मुखसे सबने अपने पूर्वभव वर्णन सुनकर वैराग्यको प्राप्त किया ! उन पवको काललब्धिकी प्राप्ति होगई-वे मोक्षके मार्गमें लग गये ! राजाधिराज करकंडु अपने पुत्र वसुपालको चम्पाका राजा बनाकर मुनि हो गये । उनके साथ चेरमादि क्षत्रियोंने भी दीक्षा ली थी। साथ ही पद्मावती माता एवं उनकी स्त्रियां आर्यिका होगई ! करकंडु महाराज सांसारिक वैभवको तिनकेके समान त्याग करके मुनि हो गये । श्री गुरुके चरणोंकी उन्होंने वंदना की और वह विरक्त हो गये। (जिणचरण लग्गु दूखाउ भीड संसारहो उवरि विरत्ति थीउ) यह उन्हीं जैसे महापुरुषके योग्य कार्य था।
करकंडु महारानने मुनिअवस्थामें घोर तपश्चरण किया और आयुके अन्तमें उन्होंने सर्वार्थसिद्ध विमानमें जा जन्म लिया ! ( सव्वत्यसिद्धि संपतु खणे, कणयामर मुणिवर घयहलहं । ) एक -ग्वालाका जीव श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणोंका सेवक बनकर मनुप्यलोकमें मनुष्यों द्वारा पुज्य राजाधिराज हुआ और फिर देव आयुको प्राप्त हुआ ! यह जैनधर्मकी शिक्षाका मर्म समझानेवाला प्रकट उदाहरण है । करकंडु महाराजने श्री पार्श्वनाथ भगवान्के तीर्थमें जन्म लेकर उन्हीं भगवानके मूलनायकत्वके मंदिर धाराशिव (तेरपुर) में बनवाये थे ! जहां मान भी हजारों जैनी जाकर आपके पुण्यमई