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__३५४] भगवान् पार्श्वनाथ ।
चह कहने लगा कि ' पहले विजयाईकी दक्षिण श्रेणीके रथनूपुर नगरमें नील और महानील नामके विद्याधरराजा थे। वे राजभ्रष्ट होकर यहां तेरपुरमें आकर राज्य करने लगे थे। उन्होंने ही पार्श्वनाथनीको उत्सर्गीकत यह गुफा और उनकी प्रतिमा वनवाई थीं। यह दोनों राजा उपरान्त तपस्या करके स्वर्गगामी हुये थे। इनके बाद नभस्तिलकपुरके राजा अमितवेग और सुवेगने आर्यखडके जिनालयोंकी वंदना करते हुये मलयगिरिपर रावणके बनवाये हुये जिनमंदिरोंके दर्शन किये थे। वहीं भ्रमण करते हुये इन्हें भगवान पार्श्वनाथजीकी रत्नमई प्रतिमा मिली थी। वे उसको एक मंजूषामें रखकर लेचले थे कि एक जगह मार्गमें उसे खखा
और फिर वह उसको वहांसे नहीं उठा सके थे | अतएव उन्होंने तेरपुर जाकर एक अवधिज्ञानी मुनिसे इसका कारण पूंछा; मिससे मालूम हुआ कि सुवेग आयु पूरीकर जन्मान्तरमें वहीं हाथी
१-तर्हि अस्थि णयर खेयरव मालु-णामे रहणेउरु चक्ववालु । तहिं खेयर भावर अत्यिनेवि-णामेण णीलमहणीलतेवि । ववितेराणवरु आय तर्हि, थाइवकीपउ रज्जु भन्छ । २-कह पासजिणिठहोदुरियणासि, सुएयक्वहिदिणमुणिवर हो पामि ।मणिरयणहिं मणि णिन्माविप्पहि, फिउछाउतेहिंजिग पडिमप्पढ् । ३-वेवदहे उत्तरटिसहि णयर अत्यहि वे विभाव अग्गोणणिटिउ सबद्ध सम नसिक्त दिवापर पटर धाम । ते अमीयवेयसुब्वेपणाम । मुनिसुद्ध सील सगो अहग, पम्मतुरयणपरिभूतिया । ते पव्विन्विहिवतणकरति, सचल्यि एकहि दिणेमहत । दक्गिदिसिलंकहि जतएहिं, मलयम्मिविसह तादिदछ तेहिं । सिरिपदीणामेगिरिवरिटु, सहिकीलणुछ आवइ सुरिंदु । तहोउवरि खणेद्धविड़ीय, णसग्गही सुरवड परिवढ़िय । वत्ता-ते पेखिविठुहपक्यधवलु, चवीस जिनालय गयगया, त पेनिवि हरिसहि तर्हि "जिपर, विणिवारिक्र्रहो जेहिं मवणु ॥ ४ ॥