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महाराजा करकण्डु |
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होगया कि इस वापीमें अवश्य ही कोई पूज्यनीय देव है ! इसलिये उसने उस वापीको खुदवाया, जिसमेंसे एक मंजूषा ( सन्दूक ) में रक्खी हुई पार्श्वनाथ भगवानकी रत्नमई प्रतिमा निकली । उस मनोहारी प्रतिमाके दर्शन करके करकंडुने बड़ा हर्ष माना और उसका अर्गलदेव नाम रखकर उस गुफामें स्थापना करदी | यह भव्य स्थान उन्होने 'कलि' नामसे संज्ञित किया। (गोवडणु हरिणा कलिउणां ) इसी अनुरूप वह आज भी कलिकुण्ड नामसे परिचित है ।
प्रतिमाजीकी स्थापना कर चुकनेपर उनके सामने एक ऊंची वेढंगी जगह मालूम पड़ी ( हरिवीढहोप्परि दिट्ठ गट्ठि ) कर कंडुने इसे साफ करने की आज्ञा देदी । कारीगरने जल निकलने की संभावनासे उसे फोड़ना उचित नहीं बताया, परन्तु करकंडुने उसको साफ करा देना ही मुनासिब समझा । कारीगरने वह जगह फोड़ना शुरू करदी और फोड़ते ही उसमेंसे अथाह जलप्रवाह बह निकला, जिससे सारी गुफा पानीसे भर गई । ( तं भरिय उलुयणु जलेण सव्वु) लोगों का वहांसे निकलना मुश्किल होगया । इसकारण राजाने वहां पर एक कुश आसनपर संन्यास ग्रहण कर लिया और आत्मचिंतनमें ध्यान लगाया । ' इतने में एक नागकुमारने प्रगट होकर कहा कि - "हे राजन् ! कालके माहात्म्यसे आजकल इस रत्नमई प्रतिमाकी रक्षा नहीं हो सक्ती थी, इसकारण मैंने यह गुफा जलपूर्ण की है । इसलिये तुझे जलके रोकनेके लिये आग्रह नहीं करना चाहिये ।" और बड़े आग्रह से राजाको उठाया ।' राजाने उस गुफा' और प्रतिमाके बनानेवालेका हाल नागकुमारसे जानना चाहा। इसपर १ - जिणुर्विववि णिग्गउ तित्यु ताव । २- पुण्याश्रव कथाकोप पृ० २४.