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सागरदत्त और बन्धुदत्त श्रेष्टि। [३३७. हुआ-उसके परिश्रमका फल मिल गया ! वह हर्षका फूला घर लौटा और देवालय निर्मित करनेमें उस धनका एक भाग खर्च करना उसने ठान लिया। लोगोंके कहनेसे वह पुंड्रदेशमें स्थित भगवान् पार्श्वनाथके समवशरणमें दर्शन करने गया और वहां उसने अपने मनोभावको प्रकट किया ! कहते हैं कि भगवानका परामर्श पाकर उसने देवालयमें श्री अर्हत् भगवान्की बिम्ब बड़े समारोहसे स्थापित की और वह आनंदसे धर्माराधनमें कालक्षेप करने लगा! वास्तवमें उसका यह कार्य एक आदर्श कार्य था। "अपने व्यापारसे जो लाभ उठाओ उसमें से एक मागको समयकी आवश्यक्तानुसार महापुरुषोकी सम्मति लेकर धर्मार्थ खर्च दो" मानो इस संदेशको ही वह आजके व्यापारियोके लिये व्यक्त कर रहा था !
इसी समय सागरदत्तके परिणामोंकी दशा सुधर चली थी और उसने भगवान् पार्श्वनाथजीके निकटसे व्रत ग्रहण करनेकी ठान ली थी किन्तु हत्भाग्यवशात उसे विदित हुआ कि भगवान्का विहार अन्यत्र होगया ! वह दिल मसोप्त कर रह गया ! फिर उसका क्या हुआ यह विदित नही है ! ___भगवान् पार्श्वनाथनी वहांसे विहार करते हुये नागपुरीमें पहुंचे थे। उससमय नागपुरीमें धनपति सेठके बन्धुदत्त नामक पुत्र बड़ा ही सुशील था । बन्धुदत्तका विवाह वसुनन्द सेठकी पुत्री चन्द्रलेखासे हुआ था; परन्तु ठीक उस अवसर पर जब कंकण बधूके करमें बांधा जा रहा था, एक सपने उसे डस लिया । रंगमें भंग हो गई-आनन्दमें क्रन्दनाद होने लगा ! संसारकी क्षणिक दशाका प्रत्यक्ष चित्र ही खिच गया ! सो भी एक दफे ही नहीं,