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३२६] भगवान पार्श्वनाथ । मत करो, शून्यमें गर्त होनाओ। परिणामवादके हाथोंमें कठपुतले बने नाचते रहो । नियत कालमें तुम्हारा स्वयं ही निवटेरा होजायगा।
किन्तु 'दर्शनसार' की उपरोक्त गाथाओमें 'मस्करि-पुरण' का 'एक साथ उल्लेख किया गया है, मानो यह दोनों एक ही व्यक्ति है अथवा इनका इतना घनिष्ट सम्बंध है, जो इन दोनोंका उल्लेख एक साथ किया जा सके। यह बात दि. जैनाचार्यके इस कथनसे ही केवल प्रगट नहीं है, किन्तु बौद्धोंके ' अत्तरनिकाय' नामक अन्थसे भी यही प्रमाणित है। वहां मक्खलिगोशालके छ अभिजाति सिद्धातको पूर्णका बतलाया गया है और उसीमें अन्यत्र उसको मक्खलिगोशालका प्राय शिप्य ही बतलाया है। इसी कारण आधुनिक विद्वान् पूर्णकाश्यप और मक्खलिगोशालके आपसी संबंधको स्वीकार करते हैं और इसलिये जैनाचार्यका उक्त प्रकार इन दोनों व्यक्तियोंका एक साथ उल्लेख करना कुछ अनोखा नहीं है।
हां । श्वेतांबर जैनोंकी मान्यता इस विषयमें इसके विरुद्ध है। वे मक्खलिगोशालको स्वयं भगवान महावीरका शिष्य बतलाते हैं
और उनकी छद्मस्थ अवस्थामें वह भगवान महावीरके निकट दीक्षित हुआ था यह कहते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं है । उनके अन्य ग्रन्थोंसे यह बाधित है, क्योंकि उनमें यह प्रगट किया गया है कि छद्मस्थावस्थामें भगवान बोलते नहीं थे-मौन रहते थे। इस दशामें गोशालका भगवान् महावीरका शिप्य बतलाना गलत है और इस
१-अगुत्तरनिकाय भाग ३ पृ० ३८३ । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ४३ । ३-भगवती मूत्र १५-१६ । ४-आचाराग मूत्र (S. BE) पृ. ८० ।