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भगवानके मुख्य शिष्य । [३०७ उनको आत्मपंथका मार्ग दर्शाते थे। उस समयके भव्य जीवोंको इनके सन्तसमागममें विशेष पुण्यसंचय करनेका अवसर प्राप्त था। बौद्ध शास्त्रोंमें हमें इन्ही जैन ऋषियोका उल्लेख परोक्षरूपमें हुआ मिलता है । उनके 'ब्रह्मनालसुत्त में पहलीसे चौथी आलोचनातक निन प्राचीन ऋषियोके मन्तव्यों का निकर है वह जैन दृष्टि से जैन मुनियोंकी मान्यताके अनुसार मात्माके निश्चय और व्यवहाररूपको लक्ष्य करके लिखा गया है। किन्हीं ऋषियोंको वहॉ संख्यात पूर्वभव बतलाकर आत्मा और लोकका कथंचित नित्यत्व और अनित्यत्व स्वरूप सिद्ध करते प्रगट किया गया है। यह कथन केवलज्ञानी और अवधिज्ञानी मुनियोंसे लागू है जो श्री पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्परामें म० बुद्धसे पहले इसी प्रकार आत्मा और लोककी सिद्धि करते थे। तथापि जो इन्हीं बातोंको तर्कवादसे सिद्ध करते हुये बताये गये हैं, वह भगवान् पार्वनाथके वादी मुनियोंको लक्ष्य करके कहा गया प्रतीत होता है।' इसतरह यह ऋषिगण केवल वर्षा. ऋतुके चार महीनोंमें एक स्थानपर ठहरते थे, वरन् ग्राम-ग्राम और नगर-नगरमें विचरते हुये धर्मोपदेशका अमृत तृषित जनताको पिलाते थे। इन्हीके सदकृत्योंका यह परिणाम निकला था कि जनता धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाके विरुद्ध आवाज कसने लगी थी और पुरोहितोंकी 'पोपडम'का अन्त करनेको उतारू होगई थी। यह महापुरुष स्वयं अपना कल्याण करते थे और प्राणीमात्रके उपकारमें दत्तचित्त रहते थे। यही नहीं कि केवल पुरुषवर्ग ही अपने आत्मकल्याण और धर्मप्रचारमें संलग्न था; बल्कि आर्य ललनायें भी
१-भगवान महावीर और म० बुद्र० परिशिष्ट पृ० २२२ ।