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भगवान् पार्श्वनाथ |
बुद्ध के पितृगण भी श्रमणभक्त थे। जिस समय म० बुद्धका जन्म हुआ था, उस समय एक अजितनामक श्रमण ऋषिने उनको देखकर आशीर्वाद दिया था तथापि जिस समय वे कपिलवस्तुसे बाहिर आरहे थे, तब भी उनको एक श्रमण के दर्शन हुये थे । यह श्रमण बौद्धभिक्षु तो नहीं हो सक्ते, क्योंकि उस समय चौद्धधर्मका अस्तित्व नहीं था किन्तु इसके माने यह भी नहीं है कि वे निश्चितरूपमें जैनश्रमण ही थे, क्योंकि उस समय आजीविक आदि साधु भी श्रमण नामसे उल्लेखित किये जाते थे । यद्यपि यह ठीक है कि मुख्यतः इस ' श्रमण ' शब्दका प्रयोग जैनसाधुओं के लिये ही होता था, क्योंकि जैनधर्मको ' श्रमणधर्म ' ही बतलाया गया है तथापि ऋग्वेदमें जो श्रमणों का उल्लेख है वह निसंशय जैन श्रमणोंसे ही लागू है क्योकि आजीविक आदि इतर श्रमणोंकी उत्पत्ति ईसासे 'पूर्व ९०० वर्षसे हुई बताई जाती है, जबकि ऋग्वेद करीब चार हजार वर्ष इतना प्राचीन बतलाया जाता है। रही बात म० बुद्धके समागममें आये हुये उक्त श्रमणोकी, सो जब हम बौद्ध ग्रन्थ 'ललित विस्तर' में यह उल्लेख पाते है कि म० बुद्ध अपने बाल्यका लमें श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त और वर्द्धमान यह चिन्ह अपने शीशपर धारण करते थे, जिनमें से पहलेके तीन चिन्ह तो क्रमशः शीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अरहनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के चिह्न हैं और अंतिम वर्द्धमान स्वयं भगवान् महावीरका नाम है तब यह कहना ठीक ही है कि संभवत उक्त श्रमण जैन मुनि ही थे
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१ - बुद्धजीवन (S. B. E. XIX) पृ० ११।२ - इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ० २४६ । ३- कल्पसूत्र १० ८३ | ४- १०।१३६