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२४६] भगवान पार्श्वनाथ । जानते। उन्हें क्रमश. ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ सम्झना चाहिये । इसलिए उनके समस्त प्रतिक्रमण दडकों के उच्चारणका विध न बतलाया गया है और इस विषयमें अंधे घोड़ेका दृष्टात दिया गया है।' *
इस शास्त्रीय उद्धरणसे स्पष्ट है कि भगवान महावीर और भगवान पार्श्वनाथने अपने धर्मोपदेशमें चारित्रनिरूपण एक दूसरेसे विभिन्न रीतिपर किया था। भगवान पार्श्वनाथ का चारित्रनिरूपण सामायिक सयम और कृत अपराधके प्रतिक्रमणरूप हुआ था और भगवान महावीरने उसका निरूपण प्रथम तीर्थकरकी भांति छेदोपस्थापना अथवा पचमहाव्रत और सर्वथा समस्त प्रतिक्रमण दंडकका उच्चारण करनेरूप किया था। यह एक ऐतिहासिक घटना है, जिसका उल्लेख वट्टकराचार्य ने किया है और इसमें समयप्रवाह ही मुख्य कारण है किन्तु इससे मोक्षप्राप्ति के मूल उद्देश्य और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय मार्ग में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है । वह ज्योंका त्यों रहा है, इसलिये यह कहा जासत्ता है कि दोनों तीर्थकरोके उपदेशक्रममें कुछ भी अन्तर नहीं था। मूल सिद्धातोंमें कभी भी कोई अन्तर नहीं पड सक्ता है । यही कारण है कि अगाध जैन साहित्य में कहीं भी प्राय ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है जिससे एक तीर्थक्करका उरदेश दुसरेके विरुद्ध प्रमाणित हो। इस अवस्था में यह स्वीकार किया जाता है कि निम जैनधर्मका प्रतिपादन भावान महावीरने किया था और जो आज हमें प्राप्त है वही धर्म पार्श्वनाथकी दिव्यध्वनिमे निरूपित हुआ था। आजटलके
• जनहिनपी भाग ५. अक -८ पृ. ३०६-१२७