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२७४] भगवान पार्श्वनाथ ।
१-मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्त्वका उदय होनेसे राग द्वेष आदि रहित सच्चे देव, सर्वज्ञ प्रणीत, युक्तिसे सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, आगम और वस्तुस्थितिके यथार्थरूप तत्वोंमें श्रद्धान नहीं हो पाता है । अनादिकालसे ससारमें घूमते हुये जीव इसी मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती होते है। इस गुणस्थानसे निकलकर जीव एकदम चौथे गुणस्थानमें पहुंच जाता है। उसे क्रमशः जानेकी जरूरत नहीं है।
२. सासादन गुणस्थान में जीवात्माका आत्मपतन होता है। चौथे गुणस्थानमें पहुंचकर जीवके उदयमें जन अनन्तानुबंधी कषायमेंसे एक अर्थात् क्रोधका उदय होता है, तब जीवात्मा पतन करता हुआ इस दूसरे गुणस्थानमें होकर पहले गुणस्थानमें पहुचता है । बस पहले गुणस्थान तक पहुंचनेके अतरालमें जो भाव रहते हैं वह साप्तादन गुणस्थान है। अर्थात् सम्यक्त्वके छूटनेपर मिथ्यात्वको पाने तक जो भावोंकी दशा हो वही साप्तादन गुणस्थानवर्ती है।
३. मिश्रगुणस्थान में सच्चे और झूठे देव, शास्त्र और पदार्थका श्रद्धान एक साथ रहता है। चौथे गुणस्थानसे पतन करके ही जीव इसमें आता है । यह जीवकी सत्य और असत्यके बीचमें डांवाडोल अवस्थाका द्योतक है ।
४. अविरतसम्यक्त्व में जीवात्माको सच्चे देव, शास्त्र और पदार्थमें श्रद्धान तो होता है, परन्तु वह व्रतोंको धारण नहीं कर । सक्ता है । अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और अपरिग्रह यही एक देशरूपमें पंचवत रहेगये है। इनका पालन करनेवाला जीव कभी भी जानबूझकर मन, वचन, कायसे न अपने लिये और न