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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९९ उनका भाव प्राचीन ऋषियोंसे विलक्षण माना था।' वह प्राचीन यज्ञवादसे स्वर्गकी प्राप्ति होना मानता था, परन्तु उनसे अमर जीवनको पाना अस्वीकार करता था। उसके निकट यज्ञका भाव ज्ञानयज्ञ था। जिसमें इन्द्रियनिग्रह करना और ध्यानको बढ़ाना मुख्य था । वह व्यक्ति (Being) को अजन्मा और ममर बतलाता था। वह कहता था कि न उसकी शून्यसे उत्पत्ति हुई है और न कुछ उससे उत्पन्न हुआ है । व्यक्ति अजन्मा, मनादिनिधन और प्राचीन है । शरीरके साथ उसका नाश नहीं होता । यदि हिंसक यह समझता है कि मैं मारता हूं और मारनेवाला समझता है कि मैं मारा जाता हूं, तो दोनों मूढ़ हैं; न एक मारता है और न दूसरा मरता है।....जिसने पापकर्मसे अपनेको दूर करके शांत नहीं बनाया है और जिसने इन्द्रियनिग्रह नहीं किया है अथवा जिसका मन स्थिर नहीं है वह व्यक्ति (Being) को ज्ञानसे भी नहीं पासक्ता है। ( कठोपनिषद् ॥२॥१८ ) योग ही उसको पानेका द्वार है, जिसका मुख्य भाव इन्द्रियनिग्रहसे था। (स्थिरं इन्द्रिय-धारणं) इसतरह नचिकेतस्ने भगवान् पार्श्वनाथजीके बताये हुए निश्चयनयसे किंचित् आत्म-लाभ प्राप्त करनेका उपाय बतलाया था और वह एकांत पक्षसे पूर्णतः सैद्धान्तिक विवेचन करनेको असमर्थ प्रतीत होता है ! परन्तु उसकी इस शिक्षासे लोगोंने उल्टा ही मतलब निकाला था और उपरांत हिसाकांड वृद्धिपर होगया था; क्योंकि लोगोंको यह धारणा हो गई कि हिसा करनेसे जीवका कुछ नहीं बिगड़ता है । अस्तु; यहां भी साधारणत. भगवान पार्श्वनाथ
१-पूर्व० पृ० २६९ । २-पूर्व० पृ० २७३ । ३-पूर्व० पृ० २७५ ।
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