________________
३०४] भगवान पार्श्वनाथ । ही मानता था और प्राणियोंकी हिंसा करना बुरा नहीं समझता था। इसकी इस शिक्षामें भी जैन सिद्धांतके व्यवहारनय अपेक्षा आत्मा और पुद्गलके संमिश्रणका विकृतरूप नजर आता है । भगवान् पार्श्वनाथने इस सिद्धांतका प्रतिपादन किया था, उसीको विकृत रीतिसे प्रगट करनेका प्रयास अजितने अपने उक्त सिद्धांतमें किया है । इस तरह यहां भी पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशका प्रभाव दृष्टि पड़ रहा है । सारांशतः हम उस समयके सैद्धांतिक अथवा धार्मिक वातावरणमें जैनधर्मका खासा प्रभाव पड़ा स्पष्ट देखते हैं। विद्वानोंका भी यह मत है कि उपरोक्त मतप्रवर्तकोंपर अवश्य नैनधर्मका प्रभाव पड़ा था, स्व० मि. जेम्सडेऽल्विस महोदयका वक्तव्य है कि म० बुद्धके समयमें भी 'दिगंबर ' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था और उपरोल्लिखित मत-प्रवर्तकोंके. सिद्धांतोपर जैनधर्मका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। प्रो० डॉ. हर्मनजैकोबी भी यही कहते है कि तीर्थंकों ( पूर्णकाश्यप, कात्यायन आदि )ने उन सिद्धांतो और क्रियायोंको अपना लिया था जो जैनमतमें मिलती हैं और संभवतः यह उन्होंने स्वयं जैनों हीसे ले ली थी। यह भी प्रगट है कि महावीरके समयमे भी जनधर्म विद्यमान था और सो भी उनसे स्वाधीन रूपमें। इससे एवं अन्य कारणोसे यह प्रगट है कि निग्रंथ अर्थात् जैनधर्म भगवान महावीरसे बहुत पहलेसे प्रचलित था। अस्तु, इस दशामें हम जैन ग्रन्थों के उल्लेखोंको सार्थक पाते हैं और भगवान् पार्श्वनाथजीके
१ भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ. २५। २-इन्टियन एण्टीकेरी. भाग ९५० १६१ । ३ पू० पृ. १६२ ।।