________________
२९८] भगवान पार्श्वनाथ । मोक्षमार्गसे बिल्कुल स्पष्ट नजर पड़ता है। दोनो ही सिद्धांतोंके अनुमार यह लोक पुरुषरूप है और सनातन है । (मुण्डक उपनिषद " अनः" यह विशेषण प्रयुक्त करता है ) अंगरिस उस लोकमें ब्रह्मलोकको आनन्दकी एक जगह मानता है किन्तु सर्वोतम स्थान मोक्ष ही स्वीकार करता है । जैनधर्म में भी ब्रह्म एवं अन्य स्वर्ग ऐसे ही आनन्दमई स्थान माने गये हैं और उसमें भी मोक्ष ही सर्वोत्तम स्थान माना गया है । किन्तु जैनधर्ममें स्वर्गसे मुक्ति होना स्वीकृत नहीं है । यह दोनो मतोके अनुमार ठीक है कि रागद्वेष और कर्म रहित आत्मा मुक्ति लाम करता है तथा मोक्षमार्गमें तपस्या एक वास्तविक उपाय है। साथ ही 'मुण्डकोपनिषद में बहुतसे ऐसे शब्द प्रयुक्त हुये है जो जैनसिद्धान्कमे पारिभाषिक शब्दोंके समान व्यवहृत है; ययाकर्म, निर्वेद, वीतराग, सम्यग्ज्ञान, निग्रंथ, इत्यादि । निगथ शब्द जैन साधुका द्योतक है। जैन साधु
ओं की तरह मुण्डकोपनिषदमे भी केशलोंच करने जैसा विधान है:'शिरोव्रत विधिवद्यैस्तु ची।' इन सादृश्यों को देखने एवं जैनग्रथ 'पउमरिय में अगरिसको भ्रष्ट जैन मुनि बतानेसे, यह स्पष्ट है कि 'मुण्डकोपनिषद में निम शिक्षाका समावेश है, वह अवश्य ही जैन . - धर्मसे लीगई है। (देखो ‘धर्मवन'-विशेपाक वर्ष ५ अक १ ८० ९-१०)
उपरान्त मिनचिकेतम् द्वारा 'गोतमक सिद्धान्तोकी उत्पत्ति हुई थी। यह भी भारद्वाजके समसामयिक व्यक्ति थे। नचिकेतमने विवाद, तप और यनवादको स्वीकार किया था; परन्तु
१-० पृ. २६५।