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भगवानका धर्मोपदेश
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है । इस दशा में आत्मामें सकंपपना मौजूद रहता है । किन्तु
मोक्ष प्राप्त कर
1 १४ - अयोगकेवली गुणस्थान में यह संकपपना बिलकुल नष्ट होजाता है । यह गुणस्थान सयोगकेवलीके नेके सिर्फ इतने अन्तराल कालमें प्राप्त होता है ऋ, ऌ, इन पाच अक्षरोंका उच्चारण मात्र ही इसके बाद जीवात्मा शरीर छोड़कर निजरूप होकर पूर्ण सुख और शांतिका अधिकारी अनादिकालके लिए होजाता है और सिद्ध वहलाता है । वह इस लोकके शिखरपर निजानन्दमय हुआ अनतकालके लिये तिष्ठा रहता है । दुःख-शोक आदि वहां उसे कुछ भी नहीं सता पाते हैं । वह सच्चिदानन्द रूप होजाता है ।
इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथका धर्मोपदेश प्राकृत रूपमें संसार तापसे तपे हुये भयभीत प्राणीको शांतिप्रदान करानेवाला संदेश था । वह रसे राव बनानेवाला था । पराधीनता के पलेसे छुड़ाकर स्वातंत्र्य सुखको दिलानेवाला था । सांसारिक विषयवासनाओं और वांछा अकांक्षाओसे कमजोर हुई आत्माओं को सिह समान निर्भीक और बलवान् बना देना, इस धर्मोपदेशका मुख्य कार्य था । निग्रंथ मुनियोंकी चर्या सिंहवृत्तिके समान होती है । जिसतरह प्राकृत रूपमें निशक होकर अरण्य क्सरी बन विहार करता है, उसी तरह दिगम्बर भेषको धारण किये हुये मुनिराज भी निडर होकर वन - कंदराओ में विचरते रहते है और सदैव आत्म स्वातंत्र्यका मंत्र जपते हैं । किन्तु सिंहके पास जानेमें इतर प्राणियोको भय मालूम देता है, पर उन आत्म स्वातंत्र्य स्थली में सिंह समान विचरनेवाले मुनिराज के निकट हरकोई निर्भय होकर पहुंच सक्ता
कि अ, इ, उ,
किया जासके !